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चरणानुयोग – २
"देवाध्विया कि आहरेमो ? कि आसगस्स सदति ?"
मां
जं पासिता णिग्गये गिवाणं करेद्र"अइ इमस्स सुतरिय नव नियम- बंपचेरवासस्स कल्लाणे वित्त-विसेसे मयि तं अहमवि नागमिस्साए हाई एमाबाई उसलाई मागुस्साई काम भोगाई माणे विहरामि से तं साहू "
एवं खलु समाणाउसो ! निग्गंथे णिदाणं fever तस्स हास्य-पालवासेका अण्णय रेसु देवलोएसु देवताए उबवत्तारो भवति महड़िए महम्मद महत्वनेगु महायमेनु महासुरुचेषु महामायेषु रईसु चिरद्वितिए ।
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रेमो ? कि जयम ? कि कि मे हियं ? कि ते
सेमं तस्य देवे भव महरिएन्नाय दिखाई भोगाई भुजमाणे विहरह जाय-' से णं तत्र देवलोगाओ भउक्सएवं भवस्य एवं टिनबर्ण अनंत अयं परसा से से इमे त उगता महामाया मोगा महामाया उग्गपुता भोगपुता सिरंभ नि पुतत्ता पचादाति । से बाए मव कुमाल-पाणि-पाए, अहो ि पंचिदियसरी जगदए ससिसोमा
पारे कैसे पिय, दंसणे, सुरुवे ।
निर्प्रन्थ का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना
तएषं से दाए उबाल-भावे दिग्परिण जोवणगमणुध्यते सममेव पेयं वा परिवज्जति ।
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तस्स णं अतिजायमाणस्स या विज्जायमाणस्स वा, पुरनो महं दासीदास किंकर -कम्मकर पुरिसा छतं भिगारं गहाय निगच्छति जाय तस्स णं एगमवि जाणेवेमाणस्स जान बसारि पंज अता चेव अम्मति "अग बाया । कि करेमो-जाव- कि ते आसगस्स सवति ?"
उ०- हंता ! आइज्जा ।
१ ठाणं. अ.
३
सु. १० ।
तहयगारस्य पुरिसजायस्स लहाने सम बा माहणे व उमओ कालं केवलिपण्णलं धम्ममा ?
इसी निदान में 1
"हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? क्या जाने ? क्या अर्पण करें और क्या आचरण करें ? आपकी हार्दिक अभिलाषा क्या है? आपको कौन से पदार्थ स्वादिष्ट लगते है ?" उसे देखकर निर्ग्रन्थ निदान करता है कि
"यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं पर्ययालन का कल्याणकारी विशिष्ट हल हो तो मैं भी जागामी काल में इस प्रकार के उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों को भोगते हुए विवरण न तो यह श्रेष्ठ होगा।"
सूत्र ३३०
आयुष्मान् !
हे श्रमणो वह निर्दय निशन करके उस निदान सम्बन्धी संयों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर महान् ऋद्धि वाले, महाद्य ति वाले महाबल वाले महायश वाले, महासुख वाले महाप्रभ वाले, दूर जाने की शक्ति वाले, लम्बी स्थिति वाले किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है ।
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वह वहाँ महधिक देव होता है- यावत् – देव सम्बन्धी भोगों को भोगता हुआ विवरता है - यावत्-दह आयु म और स्थिति के क्षय होने से उस देवलोक से भाव कर शुद्ध मातृ-पितृपक्षमा उ कुन या भोग कुल में से किसी एक कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न होता है।
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वहाँ वह बालक सुकुमार हाथ-पैर वाला, शरीर तथा पाँचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण शुभ लक्षण-जन-गुणों से युक्त, चन्द्रमा के समान सौम्य, कांत प्रिय दर्शन वाला और सुन्दर रूप बाला होता है।
बाल्यकाल बीतने पर तथा विज्ञान की वृद्धि होने पर वह बालक यौवन को प्राप्त होता है। उस समय वह स्वयं पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है ।
उसके कहीं जाते समय या बाते समय आगे छत्र, झारी आदि लेकर अनेक दासी दास-नौकर चाकर चलते हैं- यावत्--- एक को चुलाने पर उसके सामने चार पाँच बिना बुलाये ही आकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करे यावत् मारके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते है ?"
प्र० – इस प्रकार की वृद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण- माहण उभयकाल केवलि - प्ररूपित धर्म कहते है ?
उ०- हाँ, कहते हैं ।
२ ठाणं. अ. ८,
४
सु. १०.
इसी निदान में ।