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________________ सूत्र ७२५ तप से प्राप्त चारण लन्धि का वर्णन तपरचार [३६१ तिहिं अमछरानिवाएहि तिक्युत्तो अणुपरिपट्टित्ता गं सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के चारों ओर कोई महद्धिक - यावत्-महाहथ्वमागच्छेज्जा, विज्जाचारणस्स गं गोयमा ! तहा सौख्य-सम्पन्न देव-यावत्-"यह चक्कर लगा कर आता है।" सीहा गती, तहा सोहे गतिविसए पण्णते। यों कहकर तीन चुटकी बजाए उतने समय में, तीन बार चक्कर लगांकर आ जाये, ऐसी शीघ्र गति विद्याचारण की है और उसका इस प्रकार का शीघ्रगति का विषय कहा है। प०--विज्जाचारणस्ल गंते ! तिरिय के वतियं गतिविसए प्र-भगवन ! विद्याचारण की तिरछी गति का विषय पण्णते? कितना कहा है ? उ.- गोपमा ! से पं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पत्रए उ०---गौतम ! वह (विद्याचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात समोसरणं करेति, करेता, तहिं चेइयाई बंदति बंदिता (उड़ान) से मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण करता है (अर्थात् बितिएणं उप्पाउणं नंदीपरवरे दीवे समोसरणं करेति, वहां जाकर ठहरता है) फिर वहाँ चैत्यों (ज्ञानियों) की स्तुति करेत्ता तहि चेइयाई वंदति, वंदिता तो पडिनिय- करता है । तत्पश्चात वहाँ से दुसरे उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप में तति, परिनिपत्तित्तः इहमागच्छा, आगच्छित्ता इह समवसरण करता है, फिर वहाँ पर भी प्रत्यों (ज्ञानियों) की चेहयाई वंदति । चिज्जासारणस्स गं गोयमा ! तिरियं दन्दना (स्तुति करता है, तत्पनात यहाँ से (एक ही उत्पात एवतिए गतिविसए पग्णसे । में) वापस लौटता है और यहां आ जाता है । यहाँ आकर चैत्य (ज्ञानियों) की वन्दना करता है । गौतम ! विद्याचारण मुनि की तिरछी गति का विषय ऐसा कहा गया है। प०-विजाचारणम्स णं मते! उजत केवतिए गतिविसए प्र.-भगवन ! विद्याचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कितना पण्णते? कहा है? उ-गोयमा ! से इओ एगेणं उष्पाएणं नंदणषणे समो- उ०-गौतम ! वह (विद्याचारण मुनि) यहाँ से एक सरणं करेति. फरेखा सहि घेहयाई बवति, वंचिता उत्पात से नन्दनवन में संगवसरण करता है। वहाँ ठहर कर वह बितिएणं उप्पाएणं पंढगवणे समोसरण करेति, करेत्ता चैत्यों (शानियों) की वन्दना करता है। फिर वहाँ से दूसरे तहि पेडयाई वदति, वंदित्ता तओ पडिनियत्तति, पडि- उत्पात से पण्डकवन में समवसरण करता है वहाँ भी वह पत्य नियत्तित्ता इहमागच्छाह, आपिछत्ता इहं चेहयाई (ज्ञानियों) की स्तुति (वन्दना) करता है। फिर वहां से वह वदति । विज्जाचारणस्स गं गोयमा ! उढं एषतिए लौटता है और बापस यहाँ आ जाता है । यहाँ आकर यह त्यों गतिविसए पपणत्ते । (ज्ञानियों) की स्तुति वन्दना करता है । हे गौतम ! विद्याचारण मुनि की अवंगति का विषय ऐसा कहा गया है। से गं तस्स ठाणस्स अणालोइयपहियते फालं करेति यदि वह विद्याचरण मुनि उस स्थान की आलोचना और नत्यि तस्स आराहणा। से गं तस्स ठाणस्स आलोइय- प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाये तो उसकी चारित्र पडिपकते काल करेति अस्थि तस्स आराहणा। आराधना नहीं होती और यदि वह विद्याचारण मुनि उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी (चारित्र) आराधना होती है । प.-से केणढणं भंते ! एवं बुच्चनजंघाचरणे-जंघाचरणे? प्र.-भगवन ! जंघाचारण को जंघाचारण क्यों कहते हैं ? उ.-गोयमर ! तस्स णं अमअमेणं अणिक्खितेणं तबो- गौतम ! निरन्तर तेले-तेले तपाचरण-पूर्वक आत्मा कम्मेणं अप्पाणं पारमाणस्स जंघाचारणलखी नाम को भावित करते हए मूनि को जंघाचारण नामक सन्धि उत्पन्न लखो समुप्पज्जति । से तेणगं गोयमा! एवं बच्चद होती है, इस कारण से गौतम ! उसे "जधावारण" कहते हैं। जंघाचारणे-जंघाचारणे । प० - जंघाचारणस्स पं भंते ! कहं सोहा गति, कह सोहे ०--भगवन ! जंघाचारण की शीन गति कैसी होती है ? गतिविसए एण्णते? और उसकी शीघ्रगति का विषय कितना होता है ?
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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