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________________ २००] मरगानुयोग-२ महाबत धर्म के प्रकपक पुत्र ४१३-४१६ ३. रट्टरा, ४. पसस्पधेरा, (३) राष्ट्रस्थविर, (४) प्रशासक स्थविर, ५. कुलथेरा, ६, गणवेरा, (५) कुलस्थविर, (६) गणस्थविर, ७. संघर्यरा, ८. जातिषेरा, (७) संघस्थविर, (८) जातिस्थविर, ६. सुअपरा, १०. परियाययेरा। (९) श्रुतस्थविर, (१०) पर्यायस्थविर । –ठाणं. अ. १०, सु. ७६१ महश्चय-धम्म-परूयगा महावत धर्म के प्ररूपक४१४. ५.--एएसु ण मते ! पंचसु महाविवेहेसु अरहंसा मगवतो ४१४. प्र०-हे भगवन् ! पाँच महाविदेह क्षेत्र में अरिहन्त पंचमहत्वइयं सपडिक्कम धम्म पष्णवयंति ? भगवन्न पाँच महायत और सप्रतिक्रमण धर्म का उपदेश करते हैं ? उ०—णो इगट्टे समठे। उ०-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एएसु णं पंचसु मरहेसु, पंचा परसु, पुरस- पारदरत और पाच वह क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम ये पछिछमगा दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहभ्याइयं सप- दो अरिहन्त भगवन्त पांच महावत और सप्रतिक्रमण धर्म का दिक्कमणं धम्म परुणवयंति । उपदेश करते हैं। अक्सेसा गं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्म पण- शेष अरिहन्त भगवन्त चार याम रूप धर्म का उपदेश करते वति । एएसु में पंचसु महाविदेहेसु बरहंता भगवंतो हैं और पांच महाविदेह क्षेत्र में भी अरिहन्त भगवान् चार याम चाउजाम धम्म पग्णवयंति । रूप धर्म का उपदेश करते हैं। -वि. स. २०, उ.८, सु. ६ दुग्गम-सुगमठाणाई दुर्गम-सुगम स्थान४१५. पंच ठाणाई पुरिम-पच्छिमगागं जिणाणं सुग्गम भवति, ४१५. प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के शासन में पांच स्थान तं बहा दुर्गम होते हैं । वथा१. दुआइक्वं, (१) धर्मतत्व का कथन करना दुर्गम होता है। २.बुश्विमय, (२) तत्व का नय-विभाग से समझाना दुर्गम होता है। ३. दुपस्सं, (३) तत्व का युक्तिपूर्वक निर्देश करना दुर्गम होता है। ४. बुतितिक्वं. (४) उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना दुर्गम होता है। ५. दुरगचरं । (५) धर्म का आचरण करना दुर्गम होता है। पंच ठाणाई मजिसमगाणं जिणाण सुगम भवति, त जहा .. मध्मवती (बाईस) तीर्थंकरों के शासन में पांच स्थान सुगम होते हैं, यथा१. सुआइक्वं, (१) धर्मतत्व का व्याख्यान करना सुगम होता है। २. सुविषजं, (२) तत्व का नय-विभाग से समझाना सुगम होता है। ३. सुपस्स, (३) तत्व का युक्ति पूर्वक निर्देश करना सुगम होता है । ४. सुतितिक्वं, (४) उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना मुगम होता है। ५. सुरणुचरं । -ठाणं. अ, ५, उ.१, सु. ३६६ (५) धर्म का आचरण करना सुगम होता है। पंचविहा ववहारा पाँच प्रकार के व्यवहार४१६.प.-कविहे गं मंते ! ववहारे पपणते ? ४१६. T-भन्ते ! व्यवहार (दोषानुसार प्रापश्चित्त का निर्णय) कितने प्रकार का कहा गया है? .-गोयमा ! पंचविहे ववहारे पणते, तं जहा उ.-- गौतम ! व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है। यथा--- १. आगम, २. सुत, ३. आगा, (१) आगम, (२) श्रुत. (३) आज्ञा, ४. धारणा, ' जोए । (४) धारणा, (५) जीत।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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