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________________ आलोचना न करने वाले का आर्तध्यान तपाचार [३२१ । दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, दो वि ते अन्नयर अकिच्च- दो सार्मिक साधु एक साथ विचरते हों और वे दोनों हो ट्ठरणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एगं तस्य कप्पागं ठवइत्ता साधु किसी अकुत्य स्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो एगे निविसेज्जा, अह पच्छा से वि निविसेज्ना । उनमें से एक को कल्पाक-अग्रणी स्थापित करे और एक परिहार तप रूप प्रायश्चित्त को वहन करे। उसका प्रायश्चित पूर्ण होने के बाद वह (अग्रणी) भी प्रायश्चित्त को वहन करे। बहवे साहम्मिया एगयओ विहरति, एगे तत्व अन्नयरं बहुत से साधर्मिक साधु एक साथ विचरते हों और उनमें से अकिन्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा ठवणिज्ज ठवइत्ता एक साधु किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करणिज्ज वेवावडियं । करे तो (उनमें जो प्रमुख स्थदिर हो वह) उसे प्रायश्चित्त बहन करावे और दुसरे भिक्षु को उसकी वयावृत्य के लिए नियुक्त करे। बरखे गहमिया मामलो पिरति मावे वि अश्यरं बहुत से साधर्मिक साधु एक साथ विचरते हों और वे सब अकिच्चद्वार्थ पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एग तत्थ कप्पा किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करें तो ठवहत्ता अवसेसा निटिक्सेज्जा, अह एच्छा से वि निधि- उनमें से किसी एक को कल्पाक स्थापित करके शेष सब प्रायसेज्जा । - वब. उ. २, सु. १-४ श्चित्त बहन करें। बाद में वह कल्पाक साधु भी प्रायश्चित्त वहन करे। अणालोयणरस अत्तझाणं आलोचना न करने वाले का आर्तध्यान६४६. मायो गं मायं कटु, ६४६. अकरणीय कार्य करने के बाद मायावी उसी प्रकार भीतर ही भीतर जलता है, से जहाणामए-मयागरेति वा, तंबागरेति वा समभागरेति जैसे-लोहे को गलाने की भट्टी, तांबे को गलाने की भट्टी, बा, सीसागरेति वा, रुप्पागरेति या, सुबवणागरेति बा, जस्ता को गलाने की भट्टी, शीशे को गलाने की भट्टी, चांदी को तिलागणीति था, तुसागणीति वा, मुसापणोति था, गलाग- गलाने की भट्टी, सोने को गसाने की भट्टी, तिल की अग्नि, तुष गीति वा, दलागणीति घा, सोडियालिछाणि वा, मंडिया- की अग्नि, भूसा की अग्नि, नल की अग्नि, पत्ते की अग्नि, लिछाणि वा, गोलियानिछाणि वा, कुंभाराबाएति वा, मदिरा का चूल्हा, भण्डिका का चूल्हा, गोलिका का चूल्हा, धड़ों कवेल्लुआचाएति वा, पट्टावाएति वा, जंतवाडचुल्लोति वा, का पजावा, खप्परों का पजावा, ईटों का पजावा. गुड़ बनाने लोहारंपरिसाणि वा। की भट्टी, लोहकार की भट्टी, तत्ताणि, समजोतिभूताणि, किसुकफुल्लसमाणाणि उपका- तपती हुई, अग्निमय होती हुई, किंशुक के फूल के समान सहस्साई विणिम्मुयमाणाई-विणिम्मुयमाणाई, जालासहस्साई लाल होती हुई सहनों उल्काओं और सहस्रों ज्वालाओं को छोड़ती पमुंचमाणाई-पमंचमाणाई इंगालसहस्साहं पविक्खिरमाणाई- हुई, सहस्रों अग्निकणों को फेंकती हुई, भीतर ही भीतर जलती पविवियरमाणाई, अंतो तो प्रियायंति, एषामेव मायी माय है उसी प्रकार मायावी माया करके भीतर ही भीतर जलता है। कटु अंतो अंतो लियाइ। जंवि य गं अण्णे केइ वदंति पि यचं मायी जाणाति, यदि कोई अन्य पुरुष आपस में बात करते हैं तो मायावी "अहमेसे अभिसंकिग्जामि-अभिसंकिज्जामि।" समझता है कि "ये मेरे विषय में ही शंका कर रहे हैं।" ठाणं. अ. ८, सु. ५९७(म) आलोयणा करणकारणाई आलोचना करने के कारण६५०. अट्टहिं ठाणेहि मायो मायं कटु आलोएज्मा-जाव-अहारिहं ६५०. आठ कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना पायच्छित्तं तवोकम्म परिवज्रेज्जा, तं जहा करता है-यावत्-यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करता है। जैसे१. मायिस्स पं अस्सि लोए गरहिते भवति, (१) मायावी का यह लोक गहित होता है। २. उववाए गरहिते भवति, (२) परलोक गहित होता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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