SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ५२४-५२८ भक्तिरसामान संघ-व्यवस्था [२५३ ७. कायसंकिलेसे, (७) शरीर के निमित्त से क्लेशन होना । ८. जाणअसंकिलेसे, (5) ज्ञान के निमित्त से क्लेशन होना। ९.दसणअसंकिलेसे, (8) दर्शन के निमित्त से पलेशन होना : १०. चरितअसंकिलेसे। -याणं. अ. १०, सु. ७३६ (१०) चारित्र के निमित्त से क्लेश न होना । अहितकारगा ठाणा अहित करने वाले स्थान५२३. तओ ठाणा णिगंथाण वा णिमा योण वा अहियाए, असुभाए. ५२५, तीन स्थान निर्ग्रन्थ और निग्रंन्धियों के लिए अहितकर, अपवमाए. अगिस्लेयसाए, अणाणुगामियत्ताए भवंति, अशुभ, अक्षम (अयुक्त) अकल्याणकर, अमुक्तिकारी होते हैं, यथा-- १. अणता, (१) आर्तस्वर से करुण क्रन्दन करना । २. कक्करणता, (२) शय्या उपधि आदि के दोष प्रकट करने के लिए बड़ वडाट करना। ३. अवज्ञागता। -ठाणं. भ. ३, उ. ३, सु. १५८ (३) आतं और रोद्रध्यान करना। हितकारगा ठाणा हित करने वाले स्थान५२६. तओ ठाणा णिग्गंयाण वा जिग्गयोण वा हिसाए, सुहाए, ५२६. तीन स्थान निग्रन्थ और निर्गन्धियों के लिए हितकर, खमाए, णिस्सेयताए, आगुगामियत्ताए भवति, तं जहा-- शुभ, क्षम, कल्याण एवं मुक्ति-प्राप्ति के लिए होते हैं१. अफूअणता, (१) आतंस्वर में करुण कन्दन नहीं करना। २. अकरकरणता, (२) शम्या आदि के दोषों को प्रकट करने के लिए बह बडाट नहीं करना। ३. अणवज्माणता। -ठाण. अ. ३, उ. ३, सु. १८८ (३) आत्तं रौद्ररूप दुर्ध्यान नहीं करना। गण वुग्गह कारणा गण विग्रह के कारण५२७. आयरिय-उषज्झायस्स गं गणंसि पंच बुग्गहढाणा पण्णता, ५२७. आचार्य या उपाध्याय के गण मैं पांच विग्रह (कलह) तं जहा स्थान कहे गए हैं। यथा१. आयरिय-उवमाए णं गगंसि आणं वा धारणं वा णो (१) आचार्य या उपाध्याय गण में आज्ञा तथा धारणा का सम्म पउंजित्ता भवति । सम्यक् प्रयोग नहीं करे। २. आयरिय-उवमाए गं गणंसि अहारा णियाए किति- (२) आचार्य या उपाध्याय गण में दीक्षा पर्याय के क्रम से कम्भ वेणतितं णो सम्म पउंजित्ता भवति । बन्दन तथा बिनय का सम्यक् प्रयोग नहीं करे। ३. आयरिय-उवमाए णं गर्णसि ले सुतपज्जवजाते धारेति (३) आचार्य या उपाध्याय जितने सूत्रार्थ के धारक हैं उतने काले-काले को सम्ममणुप्पवाहत्ता भवति । का गण में समय-समय पर सम्यक् प्रकार से अध्यापन नहीं करावे। ४. आयरिय-उवमाए गं गणंति गिलाणसेहव्यावच्चं जो (४) आचार्य या उपाध्याय गण में ग्नान और शैक्ष की सम्ममम्मट्टिता भवति । समुचित सेवा नहीं करे (नहीं करावे)। ५. आयरिय- उमायाए गं गगंसि अणापुच्छियचारी यावि (५) आचार्य या उपाध्याय गण को बिना पूछे ही प्रवृत्ति हषा, णो आपुन्छियच्चारी। करे, पूष्ठकर नहीं करें। -ठाणं. अ.५, उ.१, सु. ३६६ गण अबुग्गह कारणा गण में विग्रह न होने के कारण५२८. आयरिय-उखमाव.स णं गगंसि पंच अवुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, ५२८, आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में कलह न होने के तं जहा पाँच कारण कहे गये हैं। जैसे१ ठाणं. अ. ३, उ.४, सु. १६८ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy