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________________ सूत्र १३४१-१३४४ तीन प्रकार के संयत दीक्षा [३ तिविहा संजया तीन प्रकार के संयत*४१. (१) जे पुथ्वट्ठाइ णो पच्छाणिवाती, ४१. (१) सो महो प्रव्रज्या स्वीकार करते है और उसी ठिा से उसका पालन करते हैं वे साधना पथ से च्युत नहीं होते हैं। (२) मे पुम्बुढाई, पच्छाणिवाती, (२) जो पहले प्रत्रज्या स्वीकार करते हैं किन्तु बाद में उससे न्युत हो जाते है। (३) जे णो पुनवाई को पच्छाणिवातो । (३) जो न तो पहले प्रमज्या स्वीकार करते हैं और न ही बाद में च्युत होते हैं। से बिसारिसए सिया जे परिणाय लोगमपणे सयति । जो साधक लोक को परिक्षा से जानकर उसका त्याग कर पुनः लोषणा में संलग्न हो जाता है वह भी गृहस्थ जैसा ही हो जाता है। एवं णिवाय मुणिणा पवेदितं-इह आणाको पंरिते अणिहे यह केवलज्ञान से जानकर तीर्थंकरों ने कहा है--पंडित पुष्वावरराय जयमाणे सया सील संपेहाए सुणिया भवे मुनि आज्ञा में रुचि रखे, स्नेह न करे । रात्रि के प्रथम और अकामे अन्न। अन्तिम भाग में (स्वाध्याय और ध्यान) करे। सदा शील का -आ. सु. १, न. ५, उ. ३, सु १५८ अनुपालन करे । परमतत्व को सुनकर काम और कलह से मुक्त हो जाय । पध्वजा जोग्गाजणा प्रवज्या योग्य जन-- ४२. वो ठाणाई अपरियाइत्ता आया जो केवलं मुंडे भविता ४२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जाने और छोड़े अगारामो अणगारियं 41, बिना आत्मा मुण्ड होकर, घर को छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता तं जहा आरंभे चैव, परिग्गहे चेव । को नहीं पाता। दो ठपणाई परियाइसा आया केवल मुंखे भवित्ता अगाराओ आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जानकर और अणगारियं पञ्चहज्जा, छोड़कर आत्मा मुण्ड होकर घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता को सं जहा-बारमे घेत्र, परिगहे चैव । पाता है। -~-ठाणं. अ. २, उ. १, सु. ५४-५५ पध्वज्जा जोग्गा जामा प्रवज्या योग्य प्रहर४३. तो जामा पश्णता, तं जहा--- ४३. तीन प्रकार के माम (प्रहर) कहे गये हैं यथापढमे जामे, मजिसमे जामे. पच्छिमे जामे। (१) प्रथम याम, (२) मध्यम याम, (३) अन्तिम याम । तिहिं जामेहि आया फेवलं मुंडे भविसा अगाराओ अणगा- तीनों ही यामों में आत्मा मुण्डित होकर गृहवास का परिरियं परवइज्जा, तं जहा त्याग कर प्रवजित होता है । यथापढमे जामे, मजिसमे जामे, पछिमे जामे। (१) प्रथम याम, (२) मध्यम याम, (३) अन्तिम याम । -ठाणं, अ. ३. उ. २, सु. १६३ पवाजा जोग्गा वया प्रव्रज्या योग्य वय४४, तो क्या पणत्ता, तं अहा ४४. तीन प्रकार के वय कहे गये हैं । यथापढमे वए, मजिसमे वए, पच्छिमे वए । (१) प्रथम वय, (२) मध्यम वय, (३) अन्तिम दय । तिहि बरहि आषा केवलं मुटे भविता अगाराओ अणयारिय तीनों ही बयों में आत्मा मुण्डित होकर गहवास का परिपव्वइन्जा । तं जहा त्याग कर प्रवजित होता है । यथा सूत्रांक ४१ में १३०० जोड़कर पढ़ें। आगे प्रेस की सुविधा व स्थान अधिक खाली न रहे अतः १३०० कम करके ४१ का अंक . ही रखा गया है। १ (क) जामा तिणि उदाहिया जेसु इमे आमरिया राबुज्झमाणा समुट्ठिया। -आ. सु. १. अ. ८, उ.१, सु. २०२ (ख) मज्झिमेणं वयसा वि एगे संबुज्ममाणा समुट्टिता सोच्चा मेधादी बयण पंडियाणं णिसामिया । - आ. सु. १, म. ८, ज. ३, मु. २०६ (क)
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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