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________________ ७२] वरणानुयोग-२ तीन उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान सूत्र १६७-२०१ अदृमभत्तियस्स पाणग गहण विहाणं तीन उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान१६७. आसावासं पजोसवियस्स अट्टमभत्तियस्स भिक्षुस्स कप्पइ १६७. वर्षावास रहे हुए अष्टम भक्त (तेले) करने वाले भिक्षु को तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, तं जहा नीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं यथा--- १. आयामेवा, २. सोवीरे वा, (१) आयाम, (२) सौवीर और, ३. सुखवियो वा। -दसा. द. ८, सु. ३२ (३) शुद्ध बिकट जल। विगिभस्तियस्स उसिणोदग गहण विहाणं- चार आदि उपवास करने वाले के गरम पानी ग्रहण करने का विधान-- १९८. वासावासं पज्जोसवियस्स विगिट्टभत्तिपस्स मिक्षुस्स १६८. वर्षादास रहे हए तेले से अधिक तपस्या करने वाले भिक्षु कप्पड़ एये उसिणंपियरे पडिगाहित्तए। को एकमात्र उष्ण अचित्त जल ग्रहण करना कल्पता है। वह से विय असित्थे, नो वि य णं ससित्य । भी अन्न कण से रहित हो किन्तु अन्न कण युक्त नहीं हो। -दया. द. ८, सु. ३३ भत्त-पडियाइक्खियस्स उसिणोदग गहण-विहाणं मक्त प्रत्याख्यान अनशन वाले के गरम पानी ग्रहण करने का विधान१६१. वासावास पज्जोसवियस्स भत्तपडियाइक्लियस्स भिक्खुस्स १९९. वर्षावास रहे हुए भक्त प्रत्याख्यानी भिक्षु को एक मात्र कपद एगे उसिणविपई पडिगाहित्तए । उष्ण अचित्त जल ग्रहण करना कल्पता है। से दिय गं असित्थे, नरे चेष णं ससित्थे। वह भी असिस्थ हो, ससिक्य न हो । से विपण परिपुए, नो चेक पं अपरिपुए। वह भी छाना हुआ हो, बिना छाना न हो। से वि य पं परिमिए, नो चैव गं अपरिमिए। बह भी परिमित हो, अपरिमित न हो। से विय णं असंपन्ने, नो दणं अबहुसंपन्ने । वह भी अच्छी तरह उबाला हुआ हो, कम उबाला हुआ दसा. द. ८, मु. ३४ न हो। दस्तिसंखा-विहाणं दत्ति की संख्याओं का विधान२००. वासावासं पन्नोसवियस्स संखादत्तियस्स भिक्षुस्स कति २००. वर्षावास रहे हुए तथा दत्तियों की संस्था का नियम पंच दत्तीओ भोअणस्स पडिगाहित्तए, पंच पाणयस्स । धारण करने वाले भिक्षु को आहार की पांच दत्तियाँ और पानी की पांच दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है। अहवा चत्तारि भोअणस्स, पंच पाणगस्स । अथवा --आहार की चार और पानी की पाँच । अहया पंच मोमणस्स, घसारि पाणगस्म । अथवा-आहार की पांच और पानी की चार । तत्य गं एगा लोणासायणमवि पडिगाहिया सिया कप्पद से उनमें एक दत्ति नमक की डली जितनी भी हो उस दिन तदिवस तेणेव भत्तठेणं पणजोसवित्तए । उसे उसी आहार से निर्वाह करना चाहिए । नो से कप्पाइ दुच्चपि गाहावइ-कुल भत्ताए वा पाणाए वा, किन्तु उसे गृहस्यों के घर में आहार पानी के लिए दूसरी निक्समित्तए था, परिसित्तए वा। -दसा. द. ८, सु. ३५ बार निष्क्रमण-प्रवेश करना नहीं कल्पता है। पज्जोसवणाए आहारकरणस्स पायच्छित्त सुत्तं- पर्युषण में आहार करने का प्रायश्चित्त सूत्र२.१. जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरिय आहारं आहारेड आहा- २०१. जो भिक्ष पर्युषण अर्थात् संवत्सरी के दिन अल्प आहार रतं वा साइजह । भी करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जा चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ---नि.उ. १०, सु. ४५ आता है। १ यहाँ वर्षावास समाचारी में यह विशेष कथन है। मामान्य कथन ठाणांग सूत्र में है। अतः चातुर्मास में या शेष काल में उक्त तपश्चर्याओं में उक्त प्रासुक जल ग्रहण किये जा सकते हैं ऐसा समझना चाहिए।' २ दत्ति का स्वरूप व्यवहार सूत्र ३०६ में भी है, वह तपाचार में देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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