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सूत्र १९३-१६६
मात्रा से हमारा करी : भिन
संयमी जीवन
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अह पुण एवं जाणिजा-विगओवगे मे काए छिनसिणेहे यदि वह ऐसा जाने कि मेरे शरीर से वर्षा का जल नितर एवं से कप्पा असणं वा-जाव-साइमं वा आहारित्तए। गया है अथवा वर्षा का जल सूख गया है तो उसे अशन-यावत
-दसा. द. य, सु. ४६ स्वाद्य आहार करना कल्पता है।
वर्षावास-तप-संलेखना समाचारो-४
आयरियाइएहि आपुच्छित्ता तवोकम्म करण विहाणं- आचार्यादि से पूछकर तप करने का विधान१९४. वासावासं पज्जोविए भिक्खू इच्छेज्जा अग्णयर ओराल १६४, वर्षावास रहा हुआ भिक्षु यदि किसी प्रकार का प्रशस्त,
कल्लाणं सिवं अयं मंगलं सस्सिरीयं महामावं तबोकम्मं कल्याणकर, शिवनद, धन्यकर, मंगलरूप, श्रीयुक्त, महाप्रभावक उपसज्जितागं विहरितए।
तपःकर्म स्वीकार करना चाहे तो--- मो से कप्पह अणापुभिछत्ता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेययं आचार्य-यावस--गणाबच्छेदक अथवा जिसको अगुत्रा वाज वा पुरओ का बिहरहा।
मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछे बिना नपःकर्म स्वीकार
करना नहीं कल्पता है। कप्पद से आपुरिछत्ता आपरियं वा-जाव-गणावच्छेमयं वा विन्तू आचार्य-यावत् -गणावच्छेदक अथवा जिसको जंच वा पुरओ का विहरह।
अगुआ मानवार वह विचर रहा हो उन्हें पूलकर ही तरःकर्म स्त्रीकार करना कल्पता है।
(आज्ञा लेने के लिए भिक्षु इस प्रकार पूछ-) 'इच्छामि गंमते ! तुम्भेहि अश्मणुग्णाए समाणे अग्णयर "हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो किसी प्रकार का
ओराल-जान-तबोकम्म उबसपज्जित्ताणं विहरितए तं एवढ्यं प्रशस्त-यावत् –तपःकर्म स्वीकार करना चाहता हूँ वह भी • वा, एवइस्तो था।'
अमुक प्रकार का और इतनी बार।" ते य से विवरेजा, एवं से फापा अग्णयर ओरा-जान- यदि वे आशा दें तो मन्यतर प्रशस्त यावत् - तपःकर्म तवोकम्म उवसंपज्जिताणं विहरित्तए ।
स्वीकार करना काल्पता है। ते प से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पड़ अण्णयरं ओरालं यदि वे आज्ञा न दें तो अन्यतर प्रशस्त यावत् - तपःकर्म -जाव-तबोकम्म उवसंपज्जित्ता विहरित्तए।
स्वीकार करना नहीं कल्पता है । ५० --से किमाणु भंते !
प्रहे भगवन् ! ऐमा कहने का क्या कारण है ? 10--आयरिया पञ्चवायं नाणंति ।
उ०...-आचार्यादि आने वाली विघ्न-बाधाओं को जानते हैं ।
-दया. द. ८, सु. ६४ पउत्थभस्तियस्स पाणगगहण विहाणं
उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान - १६५ वासावासं पज्जोसवियस्स-उत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स १६५. वर्षावास रहे हुए चतुर्य भक्त (उपवास) करने वाले भिक्षु कम्पति सओ पाणगाई पबिगाहितए, तं जहा
को तीन प्रकार के पानी लेने कल्पसे हैं। यथा१. उस्सेहम, २. संसेइम,
(१) उत्स्वेदिम, (२) संस्वेदिम, ३. घाउलोदगं ।
-दसा. द. ८, सु. ३० (३) और चावलों का धोवन । छ?भत्तियस्स पाणग गहण विहाणं
दो उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान१६६. वासावासं परजोसवियस्त छत्तिपस्स भिक्खुस्स कम्पति १९६. वर्षावास रहे हुए षष्ठ भक्त (बेले) करने वाले भिक्षु को तओ पाणागाई पडिगा हित्तए. सं जहा--
तीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं, यथा१ तिलोवगं वा, २. सुमोदगं वा,
(१) तिलोदक, (२) तुषोदक और, ३. जबावगं वा।
-मा.द.८, सु. ३१ (३) यबोदक ।