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________________ ११२] घरगानुपौग-२ सामायिक किये हुए की क्रिया सूत्र २८४-२८६ सामाइयस्स समणोवासएणं इमे पंच अश्यारा आणियव्वा, श्रमणोपासक को मामायिक प्रत के पांच प्रमुख अतिचारों न समायरियरवा तं जहा को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं१. मणदुप्पणिहाणे, १. मन से अशुभ चिन्तन करना, २. वयबुप्पणिहाणे, २. बचन से अशुभ शब्द बोलना, ३. कायदुप्पणिहाणे, ३. काया से अशुभ प्रवृत्ति करना, ४. सामाइयस्स सइ अकरणया, ४, सामायिक को स्मृति न रखना, ५. सामाइयस्स अगवष्ट्रियस्स करणया। ५. दोषरहित व विधियुक्त सामायिक न रहना । -आव. अ. ६. सु. ८२-८६ सामाइयकडस्स किरिया सामायिक किये हुए की क्रिया२८५, प.. -समणोवासगास गं अंते ! सामाझ्यफस्स समणीवस्सए २५५. प्र. हे भगवन् ! श्रमण के उपाश्रय में बैठकर सामायिक अच्छमाणस्स तस्स गं मंते कि ईरियावहिया किरिया किये हुए श्रमणोपासक को क्या ईपिथिकी क्रिया लगती है, कज्जइ ? संपराइया किरिया कजइ ? अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? उ.--गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कम्जह, संपरा- उल-गौतम ! उसे ईर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती है किन्तु इया किरिया कम्जा। साम्पराविकी क्रिया लगती है। प० -से केणटुण मंते ! एवं वुच्चा-जाव-संपराइया किरिया प्रल-हे भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है --यावत्-साम्परामिको क्रिया लगती है। उ. -मोपमा! समाणोवासयरस णं सामाइयकडस्स समणो- 30-गौतम ! श्रमण के उपाश्रय में बैठकर मामायिन किये यस्सए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवति । आया- हुए श्रमणोपासक की आत्मा कषाय से युक्त होती है। जिसकी अहिंगरणवत्तिय च गं तस्स नो ईरियावहिया किरिया आत्मा कपाय से युक्त होती है, उसे एर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती कज्जति, संपराइया किरिया कमजति । है किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है। से लेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चा-जाव-संपराजया हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है -यावत् किरिया कज्जइ। -वि. स. ७, उ. १, सु. ६ साम्पराविकी क्रिया लगती है। सामाइयकडस्स भमत्तभावं-- सामायिक किये हुए का ममत्व२८६. आजीविया गं मंते ! थेरे भगवते एवं बयासि . २८६. हे भगवन् ! आजीविक गोशालक के शिष्य स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछते हैं किप.-- समणोबासगस्स गं भंते ! सामाइयास समणोवस्सए प्र-श्रमण के उपाधय में बैठकर सामायिक किये हुए अच्छमाणस्स के मंझे अपहरेज्जा, से पं मते ! तं धमणोपासक के वस्त्र आदि सामान को कोई अपहरण कर ले मंडं अगदेसमाणे कि समंड अगगवेसई ? परायणं जाए तो सामायिक पूर्ण होने पर उन घरतुओं का अन्वेषण करता म अणुगवेसइ ? हुधा मह आने सामान का अन्वेषण करता है या दूमरों के सामान का अन्वेषण करता है? उ.-गोपमा ! समंड अणुगवेसइ, नो परायगं मडं अणु- उ-गोतम ! वह अपने ही राभान का अन्वेषण करता है, गवई। पराये सामान का अन्वेषण नहीं करता । ५०... तस्स णं मंते ! तेहि सौलस्वत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण- प्र--भगवन् ! उन शीलात, गुणवत, विरमणवत, पोसहोववाहिं से मंडे अभंडे भवति ? प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार किये हुए थावक के थे भाण्ड क्या उसके लिए अभाण्ड हो जाते है ? उ०-हंता, अति । उ०-हे गौतम ! वे भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाते है। -. -.-. - - -- १ उना. अ.१, मु.५३ ।।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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