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सूत्र २०६-२८८
सामायिक किये हए का प्रेममन्धन
गृहस्थ धर्म
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प.-सेकेणं बाइगं अगं भंते ! एवं बुन्धति "स
-हे भगवन् ! यदि वे भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो अगवेता नो परायगं भर अगुगवेसा? जाते हैं तो आप ऐसा क्यों कहते है कि वह श्रावक अपने भाण्ड
का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का अन्वेषण नहीं करता? उ.--गोयमा! तस्स एवं प्रति
उ-गौतम ! सामायिक आदि करने वाले उस श्रावक के
मन में ऐसे परिणाम होते हैं कि--- "णो मे हिरणे, नो मे मुवाणे, नो मे कसे, नो मे "हिरण्य मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कॉस्म मेरा नहीं दूसे, नो मे विजल घण-कणंग-रयण-मणि-मोत्लिय- है, वस्त्र मेरे नहीं हैं तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, संख-सिप्ल-पवाल-रसरयण-मादीए, संतसारसाव- शंख, मूंगा, पदमरागादि मणि इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य देखने", ममत्तभावे पुण से अपरिषणाते भवति। मेरा नहीं है।" किन्तु उसके ममत्वभाव का प्रत्याख्यान नहीं
होता है। सेगमग गाय- गुच्चा साज बागवेसइ, हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहता है कि वह श्रावक नो परामगं भर अणुगवेसह।
अपने ही भाण्ड का अन्वेषण करता है किन्तु दूसरों के भाण्ड का -वि. स. ८, इ. ५, सु. २-३ अन्वेषण नहीं करता । सामाइयकस्स पेजबंधणं
सामायिक किये हए का प्रेमबन्धन२८७.५०--समगोवरसगस्स गं भंते ! सामाइयकडस्स समणो- २८७. प्र. हे भगवन् ! श्रमण के उपाश्रय में बैठकर सामायिक
बस्सए अच्छमाणस्स के जायं परेषजा, से गं भंते ! किये हुए श्रमणोपासक की पत्नी के साथ कोई भोग भोगता है कि जायं सरइ, अजायं परइ ?
तो क्या वह श्रावक की पत्नी को भोगता है या दूसरे की स्त्री को
भोगता है? ज०-गोयमा ! जायं चरइ, नो अजायचरह ।
उ.-गौतम ! वह श्रावक की पत्नी को भोगता है किन्तु
दूसरे की स्त्री को नहीं भोगता है। प०-तस्स गं भले ! तेहि सीलम्बय-गुण-धरमण-परचक्माण प्र.-हे भगवन् ! शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया प्रवइ ?
और पौषधोपवास कर लेने से क्या उस प्रावक की बह जाया
"अजाया" हो जाती है? उ०-हंता, भवद ।
उ०-हाँ गौतम ! श्रावक की वह जाया अजाया हो
जाती है। प०-से केणं खाणं अठेणं मंते ! एवं वृच्चइ "जायं प्रo.-हे भगवन् ! जब श्रावक की जाया 'अजाया" हो चरह, नो अजायं चर?'
जाती है, तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह व्यभिचारी उसकी
जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता? उल-गोयमा ! तस्स पं एवं भवह 'णो मे माया, णो मे उ०—गौतम ! उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते
पिया, णो मे भाया, णो मे भगिणी, णो मे मज्जा, हैं कि-"माता मेरी नहीं है, पिता मेरे नहीं हैं, भाई मेरा नहीं णो मे पुत्ता, गो मे धूया, णो मे सुण्हा", पेज्मबंधणे है, बहन मेरी नहीं है, स्त्री मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं, पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ,
पुत्री मेरी नहीं है, पुत्रवधू मेरी नहीं है", किन्तु इन सबके प्रति
उसका प्रेम बन्धन टूटा हुआ नहीं होता है। से तेज गोयमा । एवं चचाई जायं परड, नो हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहता हूँ कि वह पुरुष
अजायं घर। ..-दि. म. ८, उ.५, सु. ४-५ तस श्रावक को जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता। वेसावगासिय-सरुवं अइयारा य
देशावगासिक व्रत का स्वरूप और अतिचार२८. विसिष्यय-गहियस्स दिसा परिमाणस्स पइविणं परिमाण- २८८. ग्रहण किये हुए दिशाग्रत का प्रतिदिन संक्षिप्त परिमाण करणं वैसाबगासियं।
करना देशावगासिक व्रत है।