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________________ ११४ परगामुयोग---२ पौवध व्रत का स्वरूप और अतिचार सूत्र २८८-२ देसावगासियल्स समोवासएणं इमे पंच महयारा जागियन्दा, श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पांच प्रमुख अतिचार न समायरिया, जहा जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं(१) आणवणपोये, (१) मर्यादा के बाहर की वस्तु मँगाना, (२) पेसवणापओगे, (२) मर्यादा के बाहर वस्तु भिजवाना, (३) सहाणुवाए, (३) मर्यादा के बाहर शब्द से संकेत करना, (४) वागवाए, (४) मर्यादा के बाहर रूप से संकेत करना, (५) बहियापोगालपरतेवे। -आव. अ. ६, सु. 50-45 (५) मर्यादा के बाहर पुगल फेंककर संकेत करना । पोसह-सहवं अइयारा य पौषध व्रत का स्वरूप और अतिचार२८६. पोसहोववासे चविहे पन्नत, तं महा--- २८९. पौषधोपवास बत के चार प्रकार कहे गये हैं। जैसे(१) आहारपोसहे, (१) आहार त्याग रूप पौषध, (२) सरीरसक्कारपोसहे, (२) शरीर सत्कार त्याग प पोषध, (३) बंभरपोसहे, (३) ब्रह्मचर्य पोषध, (४) अम्बावारपोसहे। (४) सावध प्रवृत्ति परित्याग पौषध । पोसहोववासस्स समणोवासएवं इमे पंच अहयारा आणि- श्रमणोपासक को पौषधोपवास व्रत के पांच प्रमुख अतिचार यम्वा, न समायरियन्या, तं जहा जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं(१) अप्पहिलेलिय-नुपखिलहिय-सिज्जासंपारे । (१) शय्या संस्तारक की प्रतिलेखना नहीं करना या अविधि से करना। (२) अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय-सिज्जासंथारे । (२) शय्या संस्तारक का प्रमार्जन नहीं करना या अविधि से करना। (३) अपजिलेहिय-चुप्पडिसेहिय-उच्चारपासवणभूमी। (३) परठने की भूमि का प्रतिलेखन नहीं करना या अविधि से करना। (४) अप्पमज्जिय-नुप्पमज्जिय-उच्चारपासवणभूमी । (४) परठने की भूमि का प्रमार्जन नहीं करना या अविधि से करना। (५) पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया। (५) पौषच के नियमों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं -आव. अ. ६, सु. ८६.६० करना । अतिहि संविभागस्स सख्यं अइयारा य अतिथि-संविभाग-व्रत का स्वरूप और अतिचार--- २६०. अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिजाणं अन- २९०. भोजन पानी आदि द्रव्यों का देश काल के अनुकूल, श्रद्धा पाणाईचं वयाणं बेसकाल-सहा-सक्कारकमजुयं पराए सत्कार युक्त, परमभक्ति से तथा आत्म कल्याण की भावना से मत्तीए आयाणुग्गहडीए संअवाणं वाणं । ज्ञातपुष श्रमण भगवान महावीर के संयतों को दान देना अतिथि संविभाग है। अतिहि -संविभागस्स-समणोवासएग हमे पंच अइयारा श्रमणोपासक को अतिथि संविभाग व्रत के पांच प्रमुख जाणियव्वा, न समायरियध्वा, तं जहा अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए, वे इस प्रकार हैं(१) सचित्तनिवेषणपा, १२) विवेक न रखते हुए अचित्त वस्तु सचित्त पर रखना, उवा. अ.१, सु. ५४ २ उवा. अ. १, सु. ५६ यहाँ "अतिहिसंविभागस्स" शब्द के स्थान पर "अहासं विगस्स" शब्द का प्रयोग है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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