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________________ सूत्र २६.-२६२ श्रमण को शुद्ध आहार देने का फल गृहस्थ धर्म [११५ (२) सचित्तपिणया, (२) विवेक न रखते हुए अचित्त बस्तु सचित्त से ढकना । (३) कालाइएकमे, (३) विवेक न रखते हुए भिक्षा के समय में दान की भावना रखना। (४) परववएसे, (४) विवेक न रखते हुए दूसरों से दान दिलाना । (५) मारिया । -आव. अ. ६, सु. ६.१-६२ (५) कषाय युक्त भावों से दान देना । समणस्स सुद्ध आहार दाणफलं माण को मुत अनारोगापाल-.. २६१. ५०-समणोवासएणं भंते। तहारूवं समग मा माहगं २६१. प्र०-हे भगवन् ! उत्तम श्रमण और माहन को प्रासुक वा फासुएणं एसगिज्जेणं असणं पाणं-खाइम-साइमेणं, एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते पहिलामेमाणे कि लमति ? हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? जायमा ! समणोवासएणं तहारूवं समगं वा माहणं 30-गौतम ! तयारूप श्रमण या माहन का-यावत् वा-जान-पडिलामेमाणे सहावस समणस्स वा प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक, तथारूप श्रमण या माइन माहणस्स वा समाहि उम्पाएति, समाहिकारएणं से को समाधि पहुंचाता है। उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला वह तामेव समाहि पडिलभति। श्रमणोपासक स्वयं भी उसी समाधि को प्राप्त करता है। १०--समणोवासए गं भंते तहारूवं समणं वा माहणं वा प्र०-हे भगवन् ! तथारूप श्रमण या भाहण को-यावत्-जाब-पडिलामेमाणे किं चयति । प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या त्याग करता है ? जा--गोवमा ! जीवियंचयति, पुण्यं चयति, दुमकरंज --गौतम ! श्रमणोपासव जीवन के आधारभूत अन्न करेड़, दुल्लम लमति, बोहि बजाति तो पच्छा पानादि का त्याग करता है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, सिज्मइ-जाव-अंत करे। दुष्कर कार्य करता है, दुर्लभ वस्तु से लाभ लेता है, बोधि को ---वि. स. ७, उ. १, सु. ६-१० प्राप्त करता है, उसके पचनात् वह सिद्ध होता है-यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। प.-समणोवासए ण भंते ! तहारू समणं वा माहणं पा प्र०—हे भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माइन को प्रासुक फासुयएसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडित एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा लाभेभाणे कि फज्जति? प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है? पाले जा--गोयमा! एपंतसो से निज्जरा कज्जा, नरिय य से उ०—गौतम 1 वह एकान्त रूप से निर्जरा करता है और पावे कम्मे कमजह। वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है। प-समणोवासए णं भते ! तहारूवं समर्ण वा माहणं वा प्र-हे भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असग-पाण-खाइम-साहमेणं एवं अनेषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक पडिलाभेमाणे कि कज्जइ? को किस फल की प्राप्ति होती है ? उ०-गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कज्जा, अप्पतराए उ.--गौतम ! उस के अधिक निर्जरा होती है और अल्प से पावे मम्मे करजई। " पापकर्म का बन्ध होता है। -वि. स. ८, 3.६, सु. १-२ असंजयस्स आहार-दाणं-फलं असंयत को आहार देने का फल२६२, ५०-समणोवासए ण मंते ! तहारूवं अस्संजय-अविरय. २६२.५०-हे भगवन् ! तथारूप असंयत, अविरत, जिसने अपडिहय-अपच्चालाय-पाषकम फासुएणं वा अफा- पाप कर्मों को नहीं रोका और पाप का प्रत्याख्यान भी नहीं किया सुएणं वा एसणिज्जेण वा अप्रेसगिज्जेग वा, असण. उसे प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अनेषणीय अशन-पान, पाण-वाइम-साइमेणं पश्लिामाणे कि जह? खादिम, स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? १ उदा. अ.१, सु. ५६
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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