SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ सूत्र २८-६६ संजय गण ६८. माहमा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अटु बोक्कसा। जे आरम्भ ॥ एशिया बेतिया मुद्दा. - परिग्गहे निविद्वाणं, मेरं आरम्भसंभिया कामा, न ते आपाताधा नायओ अग्ने हरंति तं वित्तं की कम्येहि ि तेसि पत्रई दुक्खविमोयगा ॥ माया पिया सा माया, मज्जा पुता य ओरसा जासं ते तव ताणाए, लुध्यंतस्स सम्पुणा ॥ चिच्च विच से य चेकचाणं अंतर्ग' सोयं विसएसिणो । एम सपेहाए. परमट्टानुगामियं । नियमो निरहंकारी, परे भणु निनाहिं ॥ संयम ग्रहण का उपदेश 1 णायओ य परिगहूं । निरवेक्खो परिब्धए ।। संयमी जीवन संजमेण दुग्गड निरोहो २९. १० अधू असासयथि संसारम्भि खपराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाई दोगगइ न गरछेज्जा ॥ ०वसंयोगं न सिहि कहिनि फुना । असिणेह सिणेहकरेहि, दोसपओसेहि मुच्चए भिक्खू [३७ संग्रहण का उपदेश - ६८. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चांडाल, वर्ण संकर, शिकारी, वेष से या विभिन्न कलाओं से जीविका चलाने वाले और खेती करने वाले आदि जो भी आरम्भ में रत रहते हैं । तथा जो परिग्रह में मूच्छित रहते हैं उनके वैर की वृद्धि होती है। वे आरम्भ और परिग्रह से प्राप्त काम भोग, उन्हें दुःखों से मुक्त नहीं कर सकते । सूय. सु. १, अ. ६, या २७ करे । पुरिनोरम पाहणः पयिन्तं मदानीषियं । पावकम्मणा राम्रा काम मोहं जति नरा ॥ विषय मुख के अभिलाषी ज्ञतिजन या अन्य लोग मृत व्यक्ति का दाहसंस्कार आदि भरणोत्तर कृत्य करके उस धन को ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु नाना पापकर्म करके धन संचित करने वाला वह मृत व्यक्ति अकेला अपने पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख को भोगता है । अपने पापकर्म से संसार में पीड़ित होते हुए तुम्हारी रक्षा करने में माता, पिता, पुत्रवधु, भाई, पत्नी और सगे आदि पुर कोई भी नहीं होते। परमार्थ की ओर जाने वाले इस अर्थ को समझकर ममता और अहंकार से रहित होकर भिक्षु जिनो धर्म का आचरण करे । धन, पुत्र, ज्ञातिजन और परिग्रह का त्याग करके अन्तर के शोक-सन्ताप को छोड़कर साधक निस्पृह होकर संयम पालन हे पुरुष ! उस पाप कर्म से उपरमण कर (क्योंकि) मनुष्य जीवन का अन्त अवश्यम्भावी है। जो काम भोग आदि में निमग्न - १, सू. सु. १, अ. २. व. ग. १० र इन्द्रिय-विषयों में मूर्च्छित है वे वसंत पुरुष मोह को प्राप्त होते हैं । किन संयोहोला। हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो। तुम बोध क्यों नहीं प्राप्त जो हणमंत रातिओ, जो सुलभं पुणराखि जीषियं ॥ करते? जीत चुकी है वापस लौटकर नहीं आती और - सू. सु. १, अ. २, ३. १, गा. १ यह गंयमी जीवन भी फिर सुलभ नहीं है। मायाहि पियाहि सुई, जो सुलहा सुगद्द य पेन्चओ । एurs भयाइ बेहिया आरंभा विरमेज्ज सुवइ ॥ -सू. सु. १, अ. २, उ. १, गह. ३ जो व्यक्ति माला, पिता के मोह में पड़कर धर्म मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, उनकी असे जन्म में पति सुलभ नहीं है। इन स्थानों पर विचारकर सुपारी पुरुष हिना से विश्व हो जाए । संयम से दुर्गति का निरोध ६६. प्र०—-अन व, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन सा कार्य है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ ? उ०- पूर्व सम्बन्धों का त्याग कर, किसी भी वस्तु में स्नेह करे | स्नेह करने वालों के साथ भी स्नेह न करता हुआ भिक्षु दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy