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घरणानुयोग-२
जन्म-मरण से विमुक्ति
सत्र ६९-१०२
तो नाण सणसमग्गो, हियनिस्साए सबजीवाणं ।
केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त तथा मोह से रहित तसि विमोक्खणट्टाए, भासई मुणिबरो विगयमोही ।। मुनिवर ने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा उन्हें
(पांच सौ चोरों को) प्रतिबोध देने के लिए कहा। सर्व गंथं कलहं च, विष्पजहे तहाविह भिक्खू । भिक्षु सभी कर्मबन्ध के हेतुभूत पारग्रह और कलह का सरवेसु कामनाएमु पासमाणो न लिष्पई ताई ।। त्याग करे। सब प्रकार के काम भोगों में दोष देखता हुआ
-उत्त. अ. ८, गा. १-४ आत्म-रक्षक मुनि उनमें लिप्त न बने । जम्म-मरणेण विमुत्ति
जन्म-मरण से विमुक्ति१००. तिउति तु मेधाबी, जाणं लोगसी पावगं ।
१००. लोक मैं पाप कर्म को जानने वाला मेधावी सभी बन्धनों तुति पावकम्माणि, नवं कम्ममफुधओ ॥
को तोड़ देता है क्योंकि नवा कर्म बन्धन न करने वाले पुरुष
के पापकर्म रूपी सभी बन्धन टूट जाते हैं। अकुब्बतो गवं नस्थि, कम्मं नाम बिजाणइ ।
जो पुरुष नये कर्म (कार्य) नहीं करता है, उसके कर्मों का विन्नाम से महावीरे, जेण जाति ण मिज्जती ।। बन्ध नहीं होता है । वह कमों को विशेष रूप से जान लेता है, - सूय. सु. १, अ. १५, गा. ६-७ इस प्रकार जानकर वह वीर पुरुष न जन्म लेता है और न
मरता है। एस्योवरए
मोसमाणे ।
विषय से उपरत साधक उत्तरवाद का आसेवन करता है। आयाणि परिणाम, परिवाएण विनियह॥
वह कर्म-बन्ध का विबेक कर (संयम) पर्याय (मुनि जीवन) के -आ० सु० १, मा ६, उ०२, सु० १८५ (ग) द्वारा उसका विसर्जन कर देता है। संजयस्स विणयोवएसो
संयती को विनय का उपदेश१०१. राणिएम विणयं पजे, हरावि य जे परियाम जेट्टा। १०१. जो अल्पवयस्क होते हुए भी दीक्षा वाल में ज्येष्ठ नियत्तणे बदह सच्चवाई, ओवायचं बक्ककरे स पुज्जो ॥ उन पूजनीय साधुओं के प्रति जो भिक्षु दिनय का प्रयोग करता -ग. अ.८.३, गा.३ है, नम्र व्यवहार करता है, सत्यवादी है, मुह के समीप रहने
वाला है और जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है यह
पूज्य है। निद च बहमन्लेज्जा, संपहासं विवज्जए।
भिक्षु निद्रा अधिक न ले, हंसी मजाक न करे, विधाओं में भिहो कहाहि न रमे, समायम्मि रमओ सया ।। समय न खोवे, किन्तु सदा स्वाध्याय में लगा रहे । जोगं च समणधम्मम्मि, जुजे अणलसो धुवं ।
मुनि आलस्य रहित होकर श्रमण धर्म में अपने मन, वचन जुत्तो य समणधम्मम्मि, अटुं लहइ अणुसरं ।
और काया को लगावे, क्योंकि धमण धर्म में तल्लीन बना हुआ – दस. अ. ८, गा. ४१-४२ मुनि मोक्ष को प्राप्त करता है । हत्य पायं च कार्य छ, पणिहाय जिइंदिए ।
जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर और शरीर को संयमित कर मन अल्लीण युत्तो निसीए, सगासे गुरुणो मुणी ॥ और वाणी रो संयत होकर गुरु के समीप बैठे। न पक्लओ न पुरओ, नेय किस्वाण पिटुओ।
आचार्य आदि के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न नय करू समासेज्मा, चिट्ठमा गुरुणतिए॥
बैठे । गुरु के समीप उनके उरू से अपना उरू सटाकर न बैठे।
-दस. अ.क, गा. ४४-४५ संजमस्त आराहणाए उधएसो
संयम की आराधना का उपदेश१०२. जीवितं पिटुतो किसचा, अंतं पायति कम्मुणा।
१०२. भिक्षु अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष होकर कर्मों का अन्त कम्मुणा समुहीभूया, जे मगमणुसासति ॥
कर लेते हैं। वे कर्मों के सामने खड़े होकर मोक्ष मार्ग का मनुशासन करते हैं।