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________________ सूत्र १०२ संयम की आराधना का उपदेश संपनी जीवन [३९ अणुसासणं पुडो पाणे, वसुमं पूयणासए । अणासए जए बत्ते, रठे आरयमेहणे ॥ संयम धन से सम्पन्न संयमी प्राणियों की योग्यता के अनुसार अनुष्णारान करते हैं किन्तु वे पूजा की इच्छा नहीं रखते हैं और वे अभिलाषा रहित, संयत, दान्ल, दृढ़ संयमी मैथुन से विरत .... णीवारे य न लोएज्जा, छिन्नसोते अणाविले । जिसने आसबहारों को रोक दिया है, जो निर्मल चित्त अणाइले सया दंते, संधिपते अर्गलिसं ।। वाला है यह प्रलोभन के स्थान में लिप्त नहीं होता है। वह सदा निर्मल चित्त याला दान्त अनुपम संधि (ज्ञान आदि) को प्राप्त करता है। अलिसस्स खेतणे, " विरुज्मेजज केणइ । अनुपम सन्धि को जानने वाला पुरुष किसी भी प्राणी के मणसा पयसा चेव, कायसा बेष चक्खुमं ॥ साथ मन बचन और काया से विरोध नहीं करता हैं वही परमा र्थदर्गी है। से हु चषखू मणुस्साणं, जे कखाए तु अंतए। जो आकांक्षाओं का अन्त करता है वह मनुष्यों का चक्षुभूत अंतेणं सुरो बहती. चक्क अंतेण लोदृति ।। (मार्ग दर्शक) है क्योंकि अन्त (धार) बाला उस्तरा ही चलता है और गाड़ी का चक्का अन्त (छोर) से ही चलता है। अंताणि धीरा सेवंति, तेणं अंतकरा इहं । धीर पुरुष अन्त प्रान्त आहार का सेवन करते हैं इसलिए वे इह मागुस्सए ठाणे, धम्मभाराहि गरा॥ समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं ऐसे ही पुरुष लोक में इस • सूम. स. १. अ. १५, गा. १०-१५ धर्म की आराधना करने के योग्य होते हैं। माहत्तहियं समुपेहमाणे, सम्वेहि पाहि निहाय दई । साधु सभ्यग शान आदि को भली-भांति जानता देखता नो जीवियं नो मरणामिकत्री, परिच्चएग्जा वलयाविमुक्के॥ हुआ समस्त प्राणियों को हिंसा का त्याग कर जीवन एवं मरण -सूय. सु. १, अ. १३. सु.२३ की आकांक्षा न करे, तथा गाया से मुक्त होकर संयम का पालन करे। बहिया उड्ढमावाय नावखे कयाइ वि। जननक्षी होकर मुनि कभी भी बाह्य (विषयों) की आकांक्षा पुश्वकम्म स्वयट्टाए, इमं देहं समुखरे॥ न करे। पूर्वीपाजित कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को -उत्त. अ. ६, गा. १३ धारण करे। आघं महर्म अणुवीति धर्म, सर्वज्ञ भगवान महावीर ने केवलशान के द्वारा जानकर अंजू समाहि तमिणं सुह । सरलता व समाधि धर्म का प्रतिपादन किया है, वह तुम सुनो ! अपठिष्ण भिक्खू तु समाहिपते, समाधि प्राप्त भिक्षु अमूच्छित और हिंसा आदि आश्रवों से मुक्त अणियागभूते सुपरिश्वएग्जा॥ रहकर शुद्ध संयम का पालन करे । -सूय. सु. २, म. १०, गा.१ इस्थीसु या अरओ मेहुणा उ, परिगहं व अकुस्खमाणे। जो स्त्रियों के साथ मैमुन सेवन नहीं करता हैं, परिग्रह नहीं अन्दावएसु विसएसु ताई, णिसंसयं भिक्खू समाहिपत्ते ॥ रखता है, नाना प्रकार के विषयों में राग द्वेष रहित होकर - मूय. सु. १, अ. १०, गा. १३ जीत्रों की रक्षा करता है निःसन्देह वही भिक्षु समाधि प्राप्त होता है। आहारमिच्छे मिय मेसणीयं, सहायमिन्छे पिउणस्थ अखि। समाधि की आकांक्षा रखने वाला तपस्वी श्रमण परिमित नियमिच्छेन विवेग जोग, समाहि कामे समणे तबस्सी॥ और एषणीय आहार की इच्छा करे । तत्वार्थों को जानने में --उत्त. अ. ३२, गा. ४ निपुण बुद्धि वाले को सहायक साथी बनावे तथा स्त्री आदि से रहित एकान्त स्थान में निवास करे । समिवियाभिनिष्ब पयासु, चरे मुणी सम्वतो विप्पमुक्के। मुनि सभी इन्द्रियों से स्त्रियों के प्रति संयत तथा सर्वस पासाहि पाणे य पुढो बि सत्ते, बुझ्षेण अद्वै परिचवमाणे ॥ बन्धन मुक्त होकर रहे। पृथक-पृथक् रूप से दुःख से पीरित और -सूय सु. १, अ. १०, गा. ४ सताये जाते हुए प्राणियों को देखें। -- . .- - . . .-. - - - - - -
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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