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________________ ४०] चरणानुयोग-२ संयम की आराधना का उपदेश सूत्र १०२ अधिसु पुरा वि भिक्खयो, आएसा पनि सुन्दा . firsa मकान में भी जो (सर्वज्ञ) हो चुके हैं और एयाई गुणाई आह ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो । भविष्य में भी जो होंगे, उन सुव्रत पुरषों ने इन्हीं गुणों को मोक्ष का माधन बताया है, उन्होंने ऋषभदेव भगवान के द्वारा प्रति पादित धर्म का ही अनुसरण किया है। तिबिहेप वि पाग मा हणे, आयहिते अणियाण संवुडे । सावक मन, वचन और काया से प्राणियों की हिसा न करे एवं सिद्धा अर्गतगा, संपत्ति जे प अगागवाऽबरे ॥ नपा पात्नहित में संलग्न रहकर स्वर्गादि सुखों के निदान से रहित होकर संयम पालन करे इस प्रकार की साधना से अनन्त जीव मुक्त हुए हैं, वर्तमान में होते हैं और भविष्य में भी अनन्त जीव मुक्त होंगे। एवं से उदाह अणुत्तरनाणी अणुत्तरवसो अणुसरनाणदंसणधरे। इस प्रकार अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर शान-दर्शन अरहा पायपुसे भगवं वैसालीए वियाहिए। धारतः इन्द्रादि देवों द्वारा पूजनीय (अहंन्त) ज्ञातपुष तथा -सूय. सु. १, अ.२, उ.३, गा. २०-२२ ऐश्वर्यादि गुण युक्त भगवान महावीर स्वामी ने वैशाली नगरी में कहा था सो मैं कहता हूँ। जाए ससाए निक्वंतो परियापट्टाणमुत्तमं । जिस श्रद्धा से उत्तम प्रव्रज्या स्थान के लिए घर का त्याग तमेव अणुपालेज्जा, गुणे आयरियसम्मए । किया है उसी श्रद्धा को पूर्ववत् बनाये रखें और सर्वश सम्मत -दस. अ.८, गा. ६० गुणों का अनुपालन करे। सोच्चा भगवाणुसासणं, सच्चे तस्थ करेज्नुवक्फम । भिक्षु भगवान के अनुशासन (आगम वाणी) को सुनकर सम्वत्य विणीयमच्छरे उंछ भिक्ख विसुब माहरे ॥ उसमें कहे गये संयम में पुरुषा करें एवं सर्वत्र मत्सरभाव रहित होकर अल्प और शुद्ध आहार ग्रहण करें। सव्वं गच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उबहाणबोरिए। साधु सब पदायों को जानकर संयम का आचरण करे, गुत्ते जुत्ते सदा जए, आय-परे परमाययहिए । धर्मार्थी रहे, तप में अपनी शक्ति लगाये, मन-वचन-काया को -सुय. सु. १, अ.२, उ, ३, गा.१४-१५ गुप्ति से मुक्त होकर रहे, सदा स्व-पर का कल्याण करें अथवा आत्मपरायण होकर यत्न करे और मोक्ष के लक्ष्य में स्थित रहे। सुअक्क्षातधम्मे वितिगिच्छतिणे, उत्तम तपस्वी भिक्षु तीर्थकरोक्त धर्म में शंकाओं से रहित लाळे बरे आयतुले पपासु । होकर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य होकर योग्य आयं न कुरजा इह जीवियट्ठी, जनपद में नितरण करे । इस लोक में चिरकाल तक जाने की चयं न कुज्जा सुलवस्सि भिश्व ॥ इच्छा से आय' अर्थात् आश्रवों का सेवन न करे तथा कर्मों का -सूर्य, मु. १, अ.१०, गा. ३ संचय न करे । गुत्ते तईए य समाहिपसे, लेसं समाहटु परिवएज्जा । भिक्षु वाणी से संयत हो समाधि-प्राप्त बने, विशुद्ध लेश्या गिहं छाए ण वि छाबएन्जा, सम्मिस्सिमावं पजहे पयासु ॥ के साथ परिव्रजन करे, स्वयं घर न छाए और दूसरों से न -सूय. सु. १, अ. १०, गा, १५ वाए, गृहस्थों के साथ एक स्थान में न रहे। जहित्तु संयं थ महाकिलेसं महाक्लेशकारी, महामोहोत्पादक और महाभय को उत्पन्न महतमोहं कसिगं भयावहं । करने वाले संपूर्ण परिग्रह एवं स्वजनादि का त्याग करके मुनि परियायधम्म चभिरोमएग्जा, प्रव्रज्या धर्म में लीन रहे। पांच महाव्रतों तथा पिंड विशुद्धि बयाणि सोलाणि परीसहे य ॥ आदि के पालने में और परीषहों को समभाव से सहन करने में अभिचि रखे। हिंस सच्चं च अतेणयं च, विद्वान् मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरितत्तो य बंभ अपरिगहं च । ग्रह -इन पांच महायतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म पडियज्जिया पंच महब्बयाई, का भलीभाँति आचरण करे । घरेज्ज धम्म जिगदेसियं विदुः ।।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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