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परमानुयोग-२
नित्यक को वेने-सेने के प्रायश्चित्त सूत्र
तं सेवमाणे आवमा चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. इ. १५, सु. ९५-९६ आता है।
(शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) पार्श्वस्थावि को वंदनादि करने, संघारा देने, आहार, वस्त्र, पात्रादि देने के प्रायश्चित्त सूत्रों की तालिकावंचन प्रशंसा का व्यवहार
सिंघाडा देने का व्यवहार नि.उ.
नि.उ. १०. अहाछंदा गुरु चौ.
४. पाश्वस्थ लघु मासिक १३. पार्श्वस्थ लघ. चौ.
४. अवसन्त " " १३. अबसन्न
४. कुशाल " . १३. कुशील
४. संसक्त
" १३. संसक्त
४. नित्यक १३. नित्यक १३. काथिक १३. प्राश्निका १३. मामक , , १३. सांप्रसारिक , , आहार वस्त्रावि देने का व्यवहार
गच्छ से अलग विचरकर पुनः गच्छ में आने वाले को १५. पार्श्वस्थ लघु चौमासी
१. एकल विहार चर्या
व्यव.उ.१ १५ अयसन्न , "
२. पावस्थ बिहार चर्या १५. कुशील ॥ ॥
३. यथाछंद विहार चर्या १५. संसक्त ॥ ॥
४. कुशील विहार चर्या १५. नित्यक , ,
५. अवसन्न बिहार चर्या ६. संसक्त विहार चर्या
७. परपासंड लिंग धारण । यथाछंद को वंदन व्यबहार के प्रायश्चित्त सूत्र नि. उ. १० में हैं किन्तु आहारादि लेन-देन सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र कहीं उपलब्ध नहीं है सम्भव है किसी युग में ये सूत्र विछिन्न हो गये होंगे। उन्हें दसचे उद्देशक में समझ लेना चाहिए।
अतः वंदन व्यवहार के अनुसार उनके साथ माहारादि लेन-देन का भी गुरु चौमासी प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए।
पाश्वस्थ अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथार्छद ये अपनी आगम विपरीत प्रवृत्तियों के कारण गच्छ से अलग कर दिये जाते हैं या वे स्वयं अलग हो जाते हैं। यदि वे गण में आना चाहें और यत्किरित् संयमी जीवन व्यतीत कर रहे हों तो उन्हें प्रायश्चित्त से शुद्ध होने के बाद गण में वापिस लिए जा सकते हैं । पावस्थादि की परिभाषा - १. पारस्य-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में जो पुरुषार्थ नहीं करता है तया अनेक अतिचारों या अनाचारों में प्रवृत्ति करता है वह "पावस्थ" कहा जाता है। २. अवसन्न -- जो संयम समाचारी से विपरीत या अल्पाधिक आचरण करता है वह "अवसन्न" कहा जाता है। ३. कुशील-संयम जीवन में जो मन्त्र, विद्या, निमित्त कपन या चिकित्सा आदि निषिद्ध कार्य है उन्हें करता है वह "कुशील" कहा जाता है। ४. संसक्त-जैसों के साथ रहता है वैसा ही हो जाता है-अर्थात् उन्नत आचार वालों के साथ रहता है तो उन्नत आधार का पालन करने लगता है और जो शिथिलाचार वालों के साथ रहता है तो शिथिलाचारी हो जाता है। वह "संसक्त" कहा जाता है। ५. नित्यक-- जो अकारण, कल्प मर्यादा का भंग करके सदा एक स्यान पर रहता है वह "नित्यक" नाहा जाता है ।
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