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________________ ४०२] धरणानुयोग-२ - - महषि का पराक्रम सूत्र ८०३.०६ कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च ज छणं, परिलहिय सम्वं अतः कर्म का मली गति पर्वालोचन करे तथा कर्म का मूल समायाय बोहि तेहि अदिस्समाणे । हिमा आदि है, उनका भी भली भांति निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा राग और द्वेष दोनों से दूर होकर रहे। तं परिष्णाय मेहावी विदित्ता लोग वंता लोगसणं से मतिम इस प्रकार सम्यग परिज्ञान कर मतिमान साधक लोक को परक्कमेम्मासि। जानकर लोकसंज्ञा का त्याग करके संयम राप में सम्यक् पराक्रम -या. मु. १, २, ३, उ. १. सु. ११०-१११ करे 1 महेसिस्स परक्कम महषि का पराक्रम८०४. अवरेण पुण्वं प सरंति एगे, २०४. कुछ अज्ञानी पूर्व या पश्चात् काल का स्मरण नहीं करते। किम्मस्त तीतं किं वाऽऽयमिस्सं ? वे इसकी चिन्ता नहीं करते कि- इसका अतीत क्या था, भासंति एगे छह माणवा तु, भविष्या होगा?' मीट मा भविष्य में आत्मा के अस्तित्व जम्मस्स तीतं तं आगमिस्स ।। को स्वीकार नही करते । जातीतम?ण य आगमिस्स, कुछ अज्ञानी ऐसा कहते हैं कि-"जो अतीत में जैसा होता अटुं जियछंति तथागता उ। है भविष्य में भी वैसा ही बनता है" किन्तु सर्वज्ञों का सिद्धांत यह विधूत कप्पे एतापस्सी, है कि "अतीत की अवस्था वर्तमान में होने का और वर्तमान की णिजमोसहत्ता खवगे महेसी । अवस्था ही भविष्य में होने का नियम नही है अर्थात् कर्मानुसार -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२४ अवस्था परिवर्तित होती है। इस सिद्धांत का विचार कर विधृत कल्प (संयम) में उपस्थित महषि सम्पूर्ण कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त करता है। परिरोगह परिच्चाए अपमसस्स परक्कम परिग्रह के परित्याग में अप्रमत्त का पराक्रम - ८०५. से सुपडियुर सुवणीयं ति गच्चा पुरिसा! परमचक्खू ! ८०५. वह परिपह से विमुक्त मुनि सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध है विपरिक्कम । एतेसु चेव यंभचरं। उसी का संयम परिपुष्ट है यह जानकर, हे परम चक्षुष्मान पुरुष! तूं परिग्रह त्याग में सम्यक पराक्रम कर, ऐसा पराक्रम करने वाले में ही ब्रह्म य (संयम) स्थित रहता है। से सूतं च मे अमस्यं च मे-"बंधपमोक्यो अज्मत्येव ।" मैंने सुना है और अनुभूत किया है कि "बन्धन से मुक्ति संयमी आत्मा द्वारा ही सम्भव है।" एस्य विरते अणगारे दोहरायं तितिक्मए। इस परिग्रह से विरत अनगार परीषहों को जीवन पर्यन्त सहन करे। पमते बहिया पास, अप्पमत्तो परिभए । जो प्रमत्त है, उन्हें निग्रंथ धर्म से बाहर समन्न । अतएव मुनि अप्रमस होकर संयम में विचरण करे । एवं मोर्ष सम्म अणुवासेज्जासि । इस प्रकार पराक्रम द्वारा मुनि धर्म का सम्यक् पालन करे । ---आ. सु. १, अ. ५, उ. २, सु. १५५-१५६ कम्म भेयणे परक्कम कर्म भेदन में पराक्रम५०६, से वंता कोहं च, माणं च, मायं घ, लोभं च, एवं पासगस्स ८०६, संयमनिष्ट मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन . सणं उबरतसस्थस्स पलियतफरस्त, आयाणं सगाभि । करे, हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले ~ आ. सु. १, अ. ३, ३.४, सु. १२८ सर्वश-सर्वदर्शी तीर्थकर प्रभु का यह कथन है कि- 'जो कर्म बन्ध के कारणों का निरोध करता है, वही स्वकृत कर्मों का नाश करने वाला है।'
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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