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________________ धरणामु — से बेमि से जहा व अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवते अमाकुखगाणे विवाहिते । जाए खाए तो तमेव अनुपालिना विमहिला विसोसियं । पणा शेरा महावी अंकेक्षण -आ. सु. १, अ. १, उ. ३, सु. १६-२१ संजयाण लक्खणं ७७. आयावति गहे हेमन्ते अवाजका । वासासु पडिलीणा संजया सुसमाहिया || दस. अ. ३, गा. १२ माहणाईनं सखगाई– ७८.० - कहं से दंते दविए घोसटुकाए ति वच्चे-माहने त्ति वा समयेति वा मिक्यू सिया विवेति वा? तंगो बृह महागुणी ।। ० एवं से देते एक (१) मह त्ति वर, (२) समणे ति था, (३) भिक्खू ति वा (४) वा इति विरए सव्यपावकम्मे पेज्ज-बोस- कलह-अमरवाण पेन-परपरि अतिरति मायामोस मिच्छास सत्य विरए समिए महिए. सयाजए भी ज्णो पाणी माणे ति बच्चे । एवं विराम-चिस्सिए अणिणे आवशगं च अतिवा च मुसावाच महिच को मार्च चना लोच मे जी जयो आयाणामी पोसतो तो विए बोस आयाणा काए समने ति बच्चे । परिएला ७६-०८ 'हे शिष्य !' अणगार — मुनि का जो वास्तविक स्वरूप है, वह मैं कहता हूँ। जो प्रबुद्ध पुरुष संयम का परिपालक है, मोक्षमार्ग पर गतिशील है और मामा छल-कपट आदि कषायों का त्यागी है मा निश्चल एवं निष्कपट (शुद्ध हृदय वाला है, वही अवगार — मुनि कहा जाता है । - जिस श्रद्धा (निष्ठा-वेराग्य भावना) के साथ संयम पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे, संयम में आने वाली बाधाओं को दूर करते हुए जीवन पर्यन्त संयम का पालन करे । यह संयमश अनेक वीर पुरुषों द्वारा आसेवित है। संयतों के लक्षण ७७. समाधियुक्त गर्मी में सूर्य की आतापना लेते हैं, सर्दी में खुले बदन रहते हैं और वर्षा में एक स्थान में रहते हैं । माहूण आदि के लक्षण ७८. प्र० - किस प्रकार दमितेन्द्रिय, मोक्षगमन वोग्य तथा शरीर के प्रतिमा करने वाला माण, धरण, भिक्षु वा निर्ग्रन्थ कहलाता है ? हे महामुने ! कृपया यह हमें बताइये । उ०- - इस प्रकार दमितेन्द्रिय मोक्षगमन योग्य तथा शरीर के प्रति ममत्व त्याग करने वाला (१) माहण, (२) श्रमण, (३) भिक्षु (४) निर्ग्रन्थ कहलाता है । जो साधक समस्त पापकर्मी से विरत है, जो राग-द्वेष नव, मिथ्या दोषारोपण, चुगली, निन्दा, संयम में अि असंयम में रुचि (अवटयुक्त सत्यादर्शन शल्य से विरत होता है, पाँच समितियों से युक्त और ज्ञान-दर्शन पारिश से सम्पन है सदैव जीवनिकाय की यतना में तत्पर रहता है, किसी पर क्रोध नहीं करता है, न अभिमान करता है, इन गुणों से सम्पन्न अणगार "माहत" कहे जाने योग्य है। ये 'भ्रमण' ऐसे समझे जायें जो अति है, निदान रहित है तथा कर्मबन्ध के कारणभूत प्राणाविपाव, मृगाभाद मैन और परिवह (उपलक्ष मे दत्तादान) से रहित है, तथा श्रोध, मान, माया, लोभ, राम और द्वे इत्यादि जो जो कारण हो आत्मा के लिए दो के कारण उनके कारणों से पहले से ही है वह निद्रिय मनमन योग्य तथा शरीर के प्रति ममत्व र 'म' कहे जाने है। P
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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