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________________ सूत्र ७५-७६ निर्गन्ध के लक्षण संयमी जीवन १६ संयमी के लक्षण-४ निग्गंथ लक्खणाई निर्ग्रन्थ के लक्षण७५. पंचासषपरिमाया, तिमुत्ता छसु संजया । ७५. पांच आषवों का निरोध करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, पंचनिग्महणा धीरा, निग्गथा उज्जुदंसियो । छह काथा के जीवों के प्रति संयत, पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने -दश. अ. ३, गा. ११ वाले, धीर निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गदर्शी होते हैं। ते अणवकखमाणा, अणतिवातेमाणा, अपरिग्गहेमाणा, णो वे काम-भोगों की आकांक्षा न रखने वाले, प्राणियों के प्राणों परिगहायति समयावति च लोगसि णिहाय दंड पाणेहि का अतिपात न करते हुए और परिग्रह न रखते हुए समग्र लोक पावं कामं अकुश्वमाणे एस महं अमेथे वियाहिये। में अपरिग्रहवान होते हैं । जो प्राणियों के लिए दण्ड का त्याग' करके पाप-कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ (निम्रन्थ) कहा गया है। ओए अदमस्त खेतपणे उववायं छयणं च णच्चा। वह साधक राग-द्वेष से रहित है, संयम एवं मोक्ष का ज्ञाता -आ. सु. १, अ., उ. ३, सु. २०६ है एवं जन्म मरण के स्वरूप को जानकर पाप का आचरण नहीं करता है। अणगार लक्खणाई अणगार के लक्षण७६.णो करिस्सामि समुट्टाए मत्ता मतिम, ७६. मुनि धर्म को स्वीकार कर, जीवों के स्वरूप को जानकर बुद्धिमान साधक यह संकल्प करे कि "मैं बनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा नहीं करूंगा।" अभयं विविसा तंजे णो करए एसोवरते, एत्योवरए एस "प्रत्येक जीव अभय चाहता है" यह जानकर जो हिंसा अणगारे ति पतति । नही करता, वही आरंभनिवृस कहा जाता है। वहीं जिनमार्ग -आ. सु. १, अ.१, उ.५, सु. ४० में स्थित है, वही "अपगार" कहलाता है। जणाणाए पुट्ठा वि एगे णियट्टन्ति मन्दा मोहेणं पाउडा । ___ अज्ञान से आवुत, विवेकशून्य कितने ही कायर प्राणी परीषहों के उपस्थित होने पर वीतराग आज्ञा से विरुद्ध आचरण करके संयम मार्ग से च्युत हो जाते हैं । ''अपरिगगहा भविस्सामो" समुदाए लड़े कामे अभिवाहति । कई साधु हम "अपरिग्रही बनेंगे इस तरह का विचार अणाणाए मुणिणो पडिलेहति । एत्य मोहे पुणो पुणो सग्णा, कर तथा दीक्षा लेकर भी प्राप्त काम-भीमों का सेवन करते हैं। जो हवाए, प्यो पाराए। वे मुनि वीतराग आज्ञा से बाह्म काम-भोगों की आकांक्षा करते हैं। वे मोह में बार-बार निमग्न होते हैं, इसलिए वे न तो इस तौर (गृहवास) पर आ सकते है और न उस पार (श्रमणत्व) जा सकते हैं। विमुक्का ते जणा, जे जगा पारगामिणो लोमं अलोमेणं जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, ये वास्तव में गुंछमाणे लढे कामे गाभिगाहति । विमुक्त है । वे अलोम (सन्तोष) से लोभ को पराजित करते हुए काम-भोग प्राप्त होने पर भी उनके सेवन की इच्छा नहीं करते हैं। विणा विलोभ निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति पासति । जो लोभ से निवृत्त प्रमज्या लेता है, वह अकर्म होकर सब कुछ जानता है, देखता है। पहिलहाए णावखति, एस अणगारे ति पवुच्चति । जो हिताहित का विचार कर विषयों की आकांक्षा नहीं -आ. सु. १, अ. २, उ. २, सु. ७०-७१ करता है वह "अनगार" कहलाता है। साता
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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