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________________ सूत्र २५०-२५२ सुप्रत्याख्यानी और सुष्प्रत्याश्यानी का पाप संयमी जीवम १०१ ANN ७. अतिहिसंविभागो, (७) अतिथि संविभाग तथा अपश्चिम मारणांतिक-संलेखनाअपछिममारणतिय-संलेहणा असणा आराहणया। झोषणा-आराधना । -दि स.७. उ. २, सु. २-८ सुपच्चवखाणी-चुपच्चवस्थाणी सरूवं सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप - २५१ प. से नूष मंते ! सम्पाणेहि सम्वभूतेहि सम्यजीवहिं २५१. प्र०-हे भगवन् ! "मैंने सर्व प्राण, सर्व भुत, सर्व जीव सध्वसहि पच्चक्लाय इति वयमाणस्स सुपन्धक्सायं और सभी सत्तों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है। इस प्रकार भासखणं रति: रहने वाले के सुपत्याख्यान होता है या दुरुपत्याख्यान होता है? ३०-गोयमा ! "सम्वयाहि-जाव-सम्बसतंहिं पच्चस्लायं' उ-गौतम ! "मैंने सभी प्राण-पावत्-सभी सत्त्वों की इति बदमाणस सिय सुपावसायं भवति, सिय हिंसा का प्रत्याख्यान किया है", इस प्रकार कहने वाले के कदादुपच्चक्खायं भवति । चित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्यारूपान होता है। प० से षट्ठे गं अंते ! एवं पुच्चा "सम्पपाहि-जाब- प्र. भगवन ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि "समस्त प्राण सरुवसहि पश्चक्खाय" इति कपमागस सिय यावत्---समस्त सत्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है" सुपच्चक्लायं भवति सिय दुपस्यक्लायं प्रवति? इस प्रकार उच्चारण करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचिन् दुष्प्रत्याख्यान होता है ? उ.-गोममा ! अस्स ण 'सयपाहि-जाव-सम्वसहि उ–गौतम ! "मैंने समस्त प्राण-यावत्-समस्त सत्वों एचपलाय" इति वयमाणस्स पो एवं अभिसमन्ना- की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है", इस प्रकार कहने वाले जिस गतं भवति पुरुष को यदि यह ज्ञात नहीं हो कि, इमे जीवा, इमे अजीवा, ये जीव हैं, ये अजीव है, हमे तसा, इमे पावरा, ये त्रस है, ये स्थावर हैं, सस्त में "सम्वपाहि-जाव-सम्वसहि पन्धखाय" उस पुरुष का "समस्त प्राण-यावत्-सर्व सत्वों का इति चयमाणस्स नो सुपञ्चासायं भवति, तुपच्चक्वायं प्रत्याख्यान" सुप्रत्याख्यान नहीं होता किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता भवति । एवं खतु से बुपयलाई सम्वपाहि-जाव: है इसलिए वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष "मैंने सभी प्राण--यावत् - सम्बसत्तेहिं "पच्चस्खाय" इति वयमागो नो सम्वं सभी सत्यों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है", इस प्रकार कहता मासं भासति, मोसं मासं भासह, एवं खलु से मुसा• हुआ सत्यभाषा नहीं बोलता, किन्तु मृषाभाषा बोलता है और वाती सम्वपाणेहि-जाव-सव्वसत्तेहि तिविहं तिविहेणं यह मृषावादी सर्व प्राण-यावत् : समस्त सत्वों के प्रति तीन असंजय-अविरय-अपरिहयपत्याखायपावकम्मे सकि- करण, तीन मोग से असंयत, अविरत, पापकर्म से अधतिहत और रिए असंधुदे एगंतवर एगंतबामे याषि भवति। पापकर्म का अप्रत्याख्यानी, क्रियाओं से युक्त, संवररहित, एकान्त दण्डकारक एवं एकान्त बाल होता है। अस्स णं "सव्वपाहि-जाव-सम्यसत्तेहि पञ्चसायं" "मैंने सर्व प्राण - यावत्-सर्व सत्वों की हिंसा का प्रत्याइति वयमाणस्स एवं अभिसमन्नागतं भवति । म्यान किया है", यों कहने बाले जिस पुरुष को यह ज्ञात होता है कि, इमे जीवा, इमे अजीवा, ये जीव हैं, ये अजीव हैं, इमे तसा, इमे पावरा, ये त्रस है, ये स्थावर है, तस्स गं-जान-सुपरपसायं भवति, नो दुपच्चक्लायं उस पुरुष का-पावत्-प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है, भवति । एवं खसु से सुपरचक्खाई-जाव-एगंतपंहिते किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं होता है और यह सुप्रत्याख्यानी-यावत्पावि भवति । एकान्त पण्डित होता है। से तेण→णं योयमा ! एवं बुबह-जाव-सिय दुपच्च- इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-पावत्क्लायं भवति । -वि. स.७, उ. २, सु.१ कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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