SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सवाचरग : एक बौद्धिक विमर्श दिवरण संकलन किया गया है। लेकिन ज्ञानाचार के शेष उप- (२) विनयाचार धानाचार, अनिन्दाचार, व्यंजन ज्ञानाचार, अर्थशानाचार, तदु- विनषाचार में इस तथ्य की विस्तार से चर्चा की गई है कि भय ज्ञानाचार की संक्षिप्त वर्षा उपलब्ध होती है। यद्यपि इन गुरु शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना चाहिये और शिष्य को गुरु विषयों की भी विस्तृत चर्चा आगमिक व्याख्या साहित्य में उप- या आचार्य के प्रति कैसे व्यवहार करना चाहिए । दुर्भाग्य से लब्ध हो जाती है । चूंकि प्रस्तुत ग्रंथ में आममों से ही विषयों आज जब शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है उसमें विनय का का संकलन किया गया है अतः आगमों में ही उनका विस्तृत स्थान गौण हो गवा है । प्राज तो ज्ञान के लिए गुरु का होना विवेचन उपलब्ध नहीं होने से अनुयोग के कर्ता में इनका यहाँ भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। किन्तु जब जान गुम-मुख संक्षेप में ही उल्लेख किया है। आगे हम इन सबकी चर्चा से ही उपलब्ध होता था तब यह अपरिहार्य था कि शिष्य का करेंगे। गुरु के प्रति आदर या श्रद्धा भाव रहे क्योंकि आचार्य या गुरु आचाररांग की टीका में नीलांक ने आठ प्रकार के ज्ञानाचारों की प्रसन्नता पर ही शान की उपलब्धि सम्भव थी। इस पर्चा का उल्लेख किया हैं-(१) कालाचार, (२) विनयाचार, के प्रसंग में जैन आगमों में आचार्य का स्वरूप और उसके (३) बहुमानाचार, (४) उपधानामार, (५) अनिन्हवाचार, विभिन्न भेद विस्तार से उल्लिखित हैं। इसी प्रसंग में यह भी (६) व्यंजनावार, (७) अर्धाचार बोर (८) उभयाचार ।। प्रताया गया है कि आचार्य, उपाध्याय, गुरु और सहयोगी वस्तुतः इन आठ ज्ञानाचारों में मुख्य रूप से ज्ञान प्राप्ति की साधकों की सेवा का क्या फल मिलता है। उसमें यह बताया प्रक्रिया का ही विवेचन किया गया है। गया है कि तथारूप अर्थात् गुण सम्पन्न आचार्य को पयुपासना (१) कालाचार' करने से धर्म श्रवण का लाभ मिलता है। धर्म श्रवण से ज्ञान कालाचार में ज्ञान-प्राप्ति के उपयुक्त समय का विचार प्राप्त होता है। ज्ञान से विज्ञान अर्थात विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया गया है । जैन परम्परा यह मानती है कि प्रथग वय से होता है, विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होने पर व्यक्ति हेय का परित्याग लेकर अन्तिम अय तक अर्थात् बाल्यकाल से लेकर बृद्धावस्था करता है उसके फलस्वरूप शनाव की प्राप्ति होती है। मनातक ज्ञान की साधना की जा सकती है। दूसरे शब्दों में ज्ञान- थव से तप का विकास होता है, तप से निर्जरा या कर्म नाश प्राप्ति की साधना जीवन पर्यन्त चल सकती है। जैन आचार्यों होता है और जिससे अन्त में अयोग अवस्था या मुक्ति की प्राप्ति ने इस सम्बन्ध में भी विस्तार से चर्चा की है कि स्वाध्याय और होती है। इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि साधक के ज्ञानार्जन के लिए उपयुक्त समय कौन-सा है? सामान्यतया तो सभी लिए गुरुकुलवास अर्थात् गुरु के सानिध्य में रहने की क्या उपकालों को ज्ञान-प्राप्ति के योग्य माना गया है, फिर भी मुख्य योगिता है । यह स्पष्ट है कि गुरु के सानिध्य में रहने से एक रूप से दिबस और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहरों को स्वा- ओर व्यक्ति का हृदय शंकाओं से आक्रांत नहीं होता है, क्योंकि ध्याय के लिए अधिक उपयुक्त काल माना गया है। इन्हें क्रमशः शंका होने पर उसके समाधान के लिए गुरु का सानिध्य बना पूर्वान्ह, अपरान्ह, प्रदोष और प्रत्यूष कहा गया है। स्वाध्याय के रहता है। दूसरी ओर उसके चारित्र का भी अनुरक्षण होता है या ज्ञानार्जन के लिए निषिद्ध समय की चर्चा करते हुए यह क्योंकि गुरु का सानिध्य होने पर वह सहज रूप से चारित्र के बताया गया है कि सूर्योदय का काल, सूर्यास्त का काल, मध्यान्ह दोषों को सेवा में अग्रसर नहीं हो पाता है। इसी प्रसंग में इस और अर्ध रात्रि का काल, ये चार काल अथवा चार संध्याएं तथ्य की चर्चा भी उपलब्ध होती है कि गुरु को शिष्य से सत्य स्वाध्याय के लिए उपयुक्त नहीं है। इसी प्रकार से स्थानांव में को नहीं छिपाना चाहिए। अपसिद्धांत का आश्रय लेकर आगममी उन सभी स्थितियों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है, पाठ को तोड़-मरोड़ कर व्याख्या नहीं करनी चाहिए और न जिनमें स्वाध्याय नहीं की जानी चाहिए। इसी प्रकार जैन स्वयं अपने ज्ञान का अहंकार प्रदर्शित करना चाहिए। उसे प्राश आचार्यों ने इस सम्बन्ध में भी विस्तार से चर्चा की है कितनी और साधक प्रश्नकर्ता या श्रोता की उपेक्षा या परिहास भी नहीं दीक्षा-पर्याय वाले व्यक्ति को किस आगम का अध्ययन कराया करनी चाहिए । इस प्रकार से आचार्य को शिष्य की शंकाओं जाना चाहिये । अध्ययन के लिए उपयुक्त वय, समम और साथ- का किस प्रकार समाधान करना चाहिए, इसकी भी विस्तार से नारमक परिपक्वता का विचार ही कालाचार है। चर्चा की गई है। दूसरे शब्दों में शिष्य के साथ-साथ गुरु के १ ३ आधाररांग टीका, १/१/७, (च. पृ. ५५) । प. पू. ७०-६६ । । २ च. पृ. ६२-६८ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy