SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ | चरणानुयोग प्रस्तावना ज्ञान और ज्ञानाचार है कि साधक को किस समय मध्ययन करना चाहिए और किस समय नहीं। इसके साथ ही देशिक एवं कालिक उन विशेष परिस्थितियों का चिन्तन किया गया है जिनके उपस्थित हो जाने पर अध्ययन या स्वाध्याय करने का वर्जन किया गया है। आगम साहित्य में पाँच प्रकार के आचारों की चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम ज्ञानाचार का विवेचन हुआ है। ज्ञानाचार शब्द ज्ञान + आचार से मिलकर बना है। ज्ञान के साथ आचार शब्द का प्रयोग सामान्यतया विचित्र सा लगता है। जब हम त्रिविध साधना मार्ग में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को अलग-अलग करते हैं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा हो जाता है कि यदि ज्ञान चारित्र से भिन्न है तो ज्ञान को आचार कैसे माना जाये। सामान्यतया जानना और करना दो मन स्थितियाँ हैं अतः इन्हें अलग-अलग ही मानना चाहिये । मेरी दृष्टि में जैनाचार्य जब ज्ञानाचार की चर्चा करते हैं तो ना तात्पर्य ज्ञान से न होकर ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया से होता है। ज्ञान प्राप्त कैसे किया जाये शुरू इसी प्रकार द्वितीय विनय ज्ञानाचार के अन्तर्गत ज्ञान-प्राप्ति के लिए विनय की क्या आवश्यकता है, अविनय के क्या दुष्परि णाम होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। साथ ही यह बताया गया है कि आचार्य और शिष्य के पारस्परिक कर्तव्य क्या हैं ? इसी के अन्तर्गत आचार्य की विनय प्रतिपत्ति और शिष्य की विनय प्रतिपति का विवेचन किया गया है। इसके साथ ही विनय के स्वरूप और उसके भेद प्रभेदों का विस्तृत चित्रण किया गया है। ज्ञानाचार की इस चर्चा के प्रसंग में विनय-ज्ञानाचार पर प्रस्तुत में उपलब्ध होती है। कारण यह है कि से सम्बन्धित है और इसी आधार पर ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया आगम साहित्य में इस विषय पर विवाद विवरण उपलब्ध होता है । (Process) को ज्ञानाचार कहा गया है। ज्ञान-प्राप्ति का उद्देश्य जैनाचार्यों ने सर्वप्रथम ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य को स्पष्ट किया है। ज्ञान प्राप्ति के चार उद्देश्य बताये गये हैं- (१) मुझे श्रुत (आगम-ज्ञान ) प्राप्त होगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए, (२) में एकाग्र होऊँगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए, ओर (३) में धर्म में स्थित होगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए, और (४) धर्म में स्थित होकर दूसरों को उसमें स्थिर इसलिए आयन करना चाहिए। वस्तुतः इस प्रसंग में "ज्ञान ज्ञान के लिए" (Knowledge for Knowledge's sake ) इस सिद्धांत को न मानकर ज्ञान को चित्तविशुद्धि और सदाचरण या धर्म मार्ग में स्थिरता प्राप्त करने के एक साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार ज्ञान स्वयं साध्य न होकर एक साघन है। ज्ञानी होने का उद्देश्य है चित्तसमाधि को प्राप्त करना और धर्म मार्ग और सदाचार में स्थित होना इस प्रकार ज्ञान का भी एक प्रायोगिक पक्ष है। ज्ञान का यह प्रायोगिक पक्ष ही ज्ञानावार है । भागापार की विषयवस्तु इस चरणानुयोग नामक प्रस्तुत संकलनात्मक ग्रन्थ में ज्ञाना चार की चर्चा करते हुए उसे पूर्वोक्त आठ ज्ञान आचारों में विभक्त किया गया है। सर्वप्रथम हम इस ग्रन्थ में ज्ञानाचार के अन्तर्गत किन-किन मुख्य विषयों का संकलन हुआ है, इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना चाहेंगे। इस ग्रंथ में प्रथम काल शानाचार के अन्तर्गत स्वाध्याय या ज्ञान साधना के लिए उपयुक्त और अनुपयुक्त काल की चर्चा की गई है और यह बताया गया कालिक २/४/७-८ (..) गुरु और शिष्य के पारस्परिक सम्बन्धों की चर्चा के बाद इसमें विजय के प्रकार उसके स्वरूप उसकी उपमाएँ, अविनीत और सुविनीत का अन्तर नादि की घर्चा हुई है। साथ ही यह भी बताया गया है कि अविनीत और सुविनीत आधार-व्यवहार का स्वयं उस पर तथा संघ पर क्या प्रभाव होता है ? इस प्रसंग में शिक्षा प्राप्ति के अयोग्य व्यक्तियों और शिक्षा प्राप्ति में बाधक कारणों की चर्चा की गई है। अन्त में गुरु आचार्य और वरिष्ठ मुनि (रालिक) की अवहेलना (आसातना) या उपेक्षा का क्या परिणाम होता है इसकी चर्चा की गई है तथा आचार्य वादि के अविनय या अवहेलना (आशातना) करने पर निश्चित प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है । तृतीय बहुमान मानाचार के अन्तर्गत आचार्य की महिमा, आचार्य की सेवा या फल और आचार्यो के विविध प्रकारों का विस्तार से उल्लेख हुआ है। उसके पश्चात् आचार्य अथवा गुरु की उपासना कैसे करनी चाहिए, उसकी सेवा-शुश्रूषा का क्या फल होता है यह बताया गया है। इसी के प्रसंग में गुरु के सानिध्य में रहने अर्थात् रु में निवास करने के महत्व की चर्चा की गई है। उसके पश्चात् शिष्य द्वारा गुरु से प्रश्न करने और गुरु के द्वारा उनके उत्तर देने की विधि का उल्लेख हुआ है। इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि उत्तर देते समय गुरु को शिष्य से सत्य को नहीं छिपाना चाहिए। इसी चर्चा के प्रसंग में बहुत ज्ञान के प्रकारों की चर्चा की गई है। बहुश्रुत की यह चर्चा उत्तराsययन ११ वें अध्याय में भी विस्तार से उपलब्ध है, जिसका यहाँ संकलन किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में कालाचार, विनयाचार, बहुमानाचार का विस्तृत
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy