SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सदासरण : एक बौद्धिक विमर्श | ४५ ... प्रतिनोत जैसे महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा के साथ-साथ अस्थि- सर्वप्रथम चरणविधि के महत्व का प्रतिपादन किया है। रात्मा कैसा होता है, यह भी विभिन्न उपमाओं से बताया गया इसके पश्चात् संवर की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति कब, किस बय है । साधुता से पतित श्रमण की दशा का वर्णन करते हुए संयम में और किस प्रकार होती है इसकी चर्चा की गई है। तदनन्तर साधना में रत रहने वालों को सुखी तथा उससे पतित होने वालों आश्रव और संकर के स्वरूप का कथन किया गया है। पांच को दुःखी कहा गया है तथा श्रमणों को संयम में स्थिर रहने का संवर द्वारों पर प्रकाश डालते हुए यह बताया गया है कि अविरति संदेश दिया गया है। मिथ्यादर्शन पर विजय पाने से क्या लाभ और विरति से जीव किस प्रकार गुरुता और लधुता को प्राप्त होता है इस पर भी प्रकाश राला गया है। चार अन्यतीथियों होता है । उसी क्रम में दस प्रकार के असंवर दस प्रकार के की श्रद्धा का निरसन करते हुए क्रमशः तज्जीवः ततशरीरवाद, संदर की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि संवर करने पंच महाभूतवाद, ईश्वरकारणिकवाद तथा नियतिवाद की समा- बाला ही महायज्ञ का कर्ता है। इसके पश्चात् दस प्रकार की लोचना की गई है। मिथ्याधियों की इस चर्चा के प्रसंग में असमाधि और दस प्रकार की समाधि तथा असंवृत और संवत सूत्रकृतांग में उल्लेखित सृष्टि की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों, अणगार के संसार परिभ्रमण की चर्चा के साथ-साय चारित्र बास्म अफर्तावाद, एकात्मवाद, आत्मषष्ठवाद और पंचमहाभूत सम्पन्नता के फल की भी चर्चा की गयी है। तदन्तर चारित्राचार के अतिरिक्त अवतारवाद, लोकवाद एवं पंच-स्कन्धवाद की भी में पांच महायतों की विस्तृत विवेचना उपलब्ध होती है। समीक्षा की गई है । किन्तु इसके साथ-साथ सूत्रकृतांग में यह प्रथम महावत के रूप में अहिंसा के स्वरूप और उसकी भी बताया गया है कि जो अपने मत की प्रशंसा एवं अन्य मत आराधना का वर्णन किया गया है। प्रसंगानुसार प्रथम महावत की निन्दा करते हैं वे संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस गाथा की प्रतिज्ञा का स्वरूप, अहिंसा के साठ नाम, भगवती अहिंसा में हमें जैन दर्शन की अनेकान्तवादी या सहिष्णुवादी दृष्टि के की आठ उपमाएँ एवं अहिंसा के स्वरूप के प्ररूपक और पालक दर्शन होते हैं । मिथ्यास की इस चर्चा के प्रसंग में मिध्यादर्शन विभिन्न प्रकार के साधकों की चर्चा है। इसके पश्चात् अहिंसा के भेद-प्रभेदों की पर्या के साथ-साथ मोहमूतु वा मिथ्यादृष्टि के आधार के रूप में आत्मवत् १ष्टि जैसे महत्वपूर्ण विषय का की दुर्दशा पर भी चर्चा की गई है। उसमें ही प्रसंगानुसार विवेचन मिलता है। विवाद या शास्त्रार्थ के छह प्रकारों तथा विपरीत प्राणा के हिला के निषेध के लिये प्रथमत: छह जीवनिकायों का विवेप्रायश्चित्त का विधान भी उपलब्ध होता है। अन्यतीथियों के चन किया गया है। तत्पश्चात् इन जीवनिकायों' की हिंसा नहीं चार सिद्धांतों पथा-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद तथा करने की प्रतिज्ञा पर बल डाला गया है । षड्जीवनिकाय में अज्ञानवाद की विस्तृत चर्चा भी हम जैनागमों में पाते हैं। यहाँ प्रथम पृथ्वीकाय, जीवों की चर्चा करते हुये पृथ्वीकाय जीवों को सूत्रकृतांग के आधार पर इन चारों ही प्रकार के सिद्धांतों के वेदना को मनुष्य को वेदना के समान बताकर उनकी हिंसा का स्वरूप की चर्चा की गई है और इनके एकांतवादी रूपों को निषेध किया गया है। समझाने का भी प्रयास किया गया है । इसी चर्चा में श्वेतकमल इसी तरह का विवरण अपकायिक जीवों, तेजस कायिक को पाने में सफल नि:स्पृह भिक्षु का उल्लेख किया गया है एवं जीवों, वायुकायिक जीवों, बनस्पतिकायिक जीनो तथा प्रसका यिक एकांत दृष्टि के निषेध पर बल दिया गया है। साय ही पाया. जीवों के सम्बन्ध में भी दिया गया है। इसी प्रसंग में आर्यपत्यों बर्थात् शिथिलाचारियों की प्रशंसा, उनसे संसर्ग आदि के अनार्य वचनों के स्वरूप, बालजीवों का पुनः-पुनः मरण प्राप्त प्रायश्चित्त की क्या व्यवस्था है इसका उल्लेख हुआ है। करना, अयतना का निषेध तथा छः जीवनिकाय की हिंसा के ___ अन्य तीथियों की मोक्ष अवधारणा और उन अवधारणाओं परिणामों पर भी प्रकाश डाला गया है। पारित्राचार के इसी के परित्याग पर विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। चर्चा के सन्दर्भ में षडजीधनिकाय की हिंसा के प्रायश्चित्त पर भी व्यापक इस प्रसंग में निर्वाण ही साध्य है, ऐसा बताया गया है। मोश चर्चा मिलती है । इसमें सचित्त (हरे) वृक्ष के मूल में मलमूत्र मार्ग में बधमत्त भाव से गमन करने के उपदेश के साथ यह भी आदि का विसर्जन करना, सचित्त वृक्ष पर चढ़ना, प्राणियों को कहा गया है कि निर्वाण का मूल सम्यकदर्शन है। प्रधान मोक्ष- बौधना आदि के प्रायश्चित्तों को विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। मार्ग की चर्चा करते हुए गुरु और वृद्धों की सेवा, स्वाध्याय, प्रायश्चित्त विधान को लेकर हमने इसी भूमिका में अन्यत्र एकान्तबास आदि उसके महत्वपूर्ण उपाय बताये गये हैं। अन्त में विचार किया है। इसमें सन्मार्ग और उन्मार्ग के स्वरूप का चित्रण किया गया है। सदोष चिकित्सा का निषेध करने के क्रम में गृहस्थ से नख, चारित्राचार-चारित्राचार के अन्तर्गत प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्न दांत, ओष्ठ आदि रंगवाना, फोड़े, व्रण आदि की पाल्य चिकित्सा विषयों का संकलन किया गया है करवाना, वैयावृत्य (सेवा) करवाना, गृहस्थत रिकित्सिर की 1 देखें-सूत्रकृतांग १/३/४/१-४।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy