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परणानुयोग-२
छह प्रकार के आवश्यक
पून २१६-२१७
ज-कुप्पावणियं भावावस्सव-जे इमे चरग चीरिग-जाव- उ०-कुप्रावधनिक भाषावश्यक-जो ये त्रिदण्डी, फटे
पासण्डत्या इज्जंजलि-होम-जप-जंबुरूपक-नमोक्कार- पुराने वस्त्र पहनने वाले - पावत् - व्रती यज्ञ, होम, गम, वृषभ माझ्याई माधावस्सयाई कति । से तं कुप्पापयणियं की तरह आवाज करना, नमस्कार करना आदि भावावश्यक भावावस्स।
करते हैं। यह कुप्रावनिक मावावश्यक है। पर-से कि तं लोगुत्तरिय भावावस्सयं?
प्र०-- लोकोत्तरिक भावावश्यक क्या है ? उ. . लोगुत्तरियं भावावस्सयं-जंण इमं समणे वा, समपी 3 लोकोतरिक मावावश्यक - जो ये श्रमण, श्रमणी,
वा, सावए था, साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, सल्लेसे, श्रादक, श्राविका आवश्यक में चित्त व मन लगाकर तल्लीन हो सदासिए, तत्तिम्वजनबसाणे, तबट्ठोवउत्ते तदपि- उत्साह युक्त आवश्यक के अर्थ में उपयोग मुक्त, पूर्णत: एकाग्र यकरण तम्मावणामाविते अण्णस्थ कत्यह मणं अक- भाव से अन्य किसी भी चिन्तन में मन को न लगाते हुए उभयरेमाणे उमओ कालं आवस्तर्य करेंति । से तं लोगुत्त- काल आवश्यक करते हैं। रियं भावाचल्सयं । से तं नोआगमतो भावावस्मयं । यह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। यह नोआगम से मावासे तं भावावस्मयं ।
वश्यक है । यह भावावश्यक है। सस्स णं इमे एगट्रिया पाणाघोसा पाणावंजणा णाम- उस आवश्यक के वे एक अर्थ वाले नाना ध्वनि वाले, धेम्जा भवंति । तं जहा -- गाहाओ--
नाना व्यंजन वाले नाम हैं-यथा-गाथार्थ - (१) आवस्सा, (२) अवस्सकरणिज
(१) आवश्यक,
(२) अनश्यकरणीय, (३) युवगिगाहो, (४) विसोही य। (३) ध्र व-निग्रह, (४) विशुद्धी, (५) अज्मयण छक्कवग्गो, (६) नाओ,
(५) छह अध्ययनों का वर्ग, (६) ज्ञात', (७) आराहणा, (८) मग्गो ॥ (७) आराधना और (८) मार्ग। समणेण सावरण य, अयस्सकायब्वयं हकति ज़म्हा । यह श्रमण और श्रावक को दिन और रात के अन्त में अंतो अहो निसिस्स , तम्हा आवस्मयं चाम।। अवश्य करणीय होता है। इसलिए इसका 'आवश्यक' नाम है ।
से तं आवस्सयं ॥ मह आवश्यक है।
अण. सु. ६-२६ बिहे आवस्सए.. -
छह प्रकार के आवश्यक...२१७. छविहे आवस्सए पण्णते, तं जहा --
२१७. छह प्रकार के आवश्यक कहे गये हैं, यया(१) सामाइयं, (२) घउबीसस्थओ, (३) वणं, (१) मामायिक, (२) चतुविशतिस्तव, (३) वन्दना, (४) पडिक्कमण, (५) काउन्सगो, (६) पचखाणं । (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग, और (६) प्रत्याख्यान ।
-अणु. सु. ७४ आवस्सगस्स गं इमे मस्थाहिगारा मवति । तं जहा
आवश्यक के अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं(१) सावज्जजोगविरती, (२) उक्कित्तण,
(१) सावद्ययोगविरति, (२) उत्कीर्तन (३) गुणवयो य परिवती । (३) गुणवत्प्रतिपत्ति, (v) बलियस्स मिवणा, (५) यतिगिच्छ,
(४) स्खलितनिन्दा, (५) चिकित्सा और (६) गुणधारणा, चैत्र ।।
(६) गुणधारणा। -अणु. सु. ७३