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________________ सूत्र १५६-१६४ अन्यूनाधिक प्रतिलेखना संयमी जीवन ३१ अणूणाइरित्त-पडिसेहणा अन्यूनाधिक प्रतिलेखना१५६. अणूणारित्तपडिलेहा अविवश्चासा तहेव य । १५६. प्रतिलेखना के विषय में शास्त्रोक्त विधि से कम न करना, पढ़मं पर्य एसत्यं सेसाणि उ अप्पसस्थाई । अधिक न करना और विपरीत न करना यह प्रथम विकल्प -उत्स. अ. २६, गा.२८ प्रशस्त है और शेष अप्रशस्त है। पडिलेहणा पमत्तो विराहओ . प्रतिलेखना-प्रमत्त विराधक-- १६०. पडिले हणं कुणन्तो, मिहीकहं कुणा जणवयकह वा । १६०, जो प्रतिलेखना करते समय परस्पर वार्तालाप करता है, बेड पच्चवखाणं, बाएइ सय परिच्छद वा ॥ जन-पद की कथा करता है, प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता है। पुड़वी-आउकाए, तेऊ-बाऊ-बगस्सइ-तमाणं । इस प्रकार प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीवाय, अकाय, पडितहणापमतो, छहं पि विराहो हो । तेजस्काय, यात्रुकाय, वनस्पतिकाय और उसकाय-इन छहों -उत्त, अ. २६, गा. २६-३० । कायों का विराधक होता है। पडिलेहणा आउत्तो आराहओ-- प्रतिलेखना में उपयुक्त आराधक - १६१. पुढवी आउपकाए, तेऊ-नाऊ-वणस्सइ-तसाणं । १६१. प्रतिलेखना में अप्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अकाय, तेजपडिलेहणाऽउत्तो छह आराहो हो । स्काय, -7युार बनाना उसकार.-इन छहों कायों -उत्त. अ. २६, गा. ३० का आराधक होता है। तइयाए पोरिसीए समायारी तृतीय पौरुषी समाचारी१६२. तइयाए पोरिसोए भत्तं पाणं यसए । १६२. छह कारणों में से किसी एक के उपस्थित होने पर तीसरे छाहं अनयरागम्मि. कारणमि समुदिए । प्रहर में भक्त और पान की गवेषणा करे । -उत्त. अ. २६. गा. ३१ चउत्थोए पोरिसीए समायारी चतुर्थ पौरुषी समाचारी१६३, पउत्थोए पोरिसीए, निषिसविताण भायणं । १६३. चौथे प्रहर में प्रतिलेखना करके पात्रों को बांध कर रख सज्मायं तओ कुरजा, सम्बभाषिभावणं ।। दे, फिर सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला स्वाध्याय करे । पोरिसीए चकमाए, वन्दित्ताग तओ गुरु। चौथे प्रहर के चतुर्थ भाग में (पौन पौरुषी बीत जाने पर) परिषकमित्ता कालस्स, सेज्जतु पडिलेहए ।। . गुरु को वन्दना कर, स्वाध्याय काल का प्रतिक्रमण कर शव्या की प्रतिलेखना करे। पासवणुरुधारभूमि च, पडिलहिज्ज जयं गई। ____ यतनाशील मुनि फिर प्रत्रवण और उच्चार-भूमि की प्रतिकाउस्सग्गं तो कुज्जा, सम्बदुमलविमोक्खणं ।। लेखना करे । तदनन्तर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायो -उत्त. अ. २६, गा. ३६-३८ त्सर्ग करे । देवसिय-पडिक्कमण समायारी देवसिक प्रतिक्रमण समाचारी१६४. देवसियं च अईयार, चिन्तिज्न अणुपुग्यसो । १६४. ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे दिन सम्बन्धी अतिचारों नाणे 4 बंसणे चेव, चरित्तम्मि तहेव य ।। का अनुक्रम से चिन्तन करे। पारिय-काउत्सग्गो, वन्दिताण तओ गुरु । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को बन्दना करे। फिर अनु. देवसियं तु अईयारं, आलोएज्ज जहक्कम ।। कम से दिन सम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे। पहिस्कमित्तु निस्सल्सो, वन्दित्ताण तओ गुरु । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को बन्दना करे। फिर काउस्सगे तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं । सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। पारियकाउस्सरगो, बम्बिसाण तो गुरु। वायोत्सर्ग यो समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर "युद्धमंगसं घ फाऊणं" काल संपडितहए ।। ___ 'स्तुति-मंगल' (णमोत्थुर्ण का पाठ) करके स्वाध्याय काल की -उत्त.अ. २६, गा. ३९.४२ प्रतिलेखना करे।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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