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________________ १३०] परमामुयोग--२ शिशु की आराधमा-विराधना सूत्र १०३-३०४ से जहा का पुरिसे बत्वं महवं वा, धोयं वा, जैसे कोई पुरुष बिल्कुल नये, धोये या करघे से तुरन्त उतरे संतुग्गय वा, मंजिहादरेणीए पक्सिबेन्जा, से नूगं हुए वस्त्र को मजीठ के द्रोण पात्र में डाले तो हे गौतम ! उठाते गोयमा ! उपिलप्पमागे उणिवत्ते, पक्षिप्पमाणे हुए वस्त्र को उठाया गया, डालते हुए वस्त्र को डाला गया फोक्सो, सामा रात सिपा अथवा रंगते हुए वस्त्र को रंगा गया यों कहा जा सकता है। हंसा, भगवं ! उमिखप्पमाणे-जाव-रते सि क्सम्व (गौतम स्वामी)--हाँ भगवन् ! उठाते हुए वस्त्र को उठाया सिया। गया-थावत्-रंगते हुए वस्त्र को रंगा गया, इस प्रकार कहा जा सकता है। से तेण?णं गोपमा! एवं स्वर-आराहए, नो (भगवान्) इसी कारण से हे गौतम ! कहा जाता है कि विराहए। -वि. स. ८, उ, ६, मु. ७-११ (बाराधना के लिए उद्यत हुए साधु या साध्वी) आराधक हैं, विराधक नहीं। भिक्खुस्स आराहणा-विराहणा भिक्षु की आराधना-विराधना३०४. भिक्यू य अप्रयरं अकिन्चट्ठाणं पडिसेविता, से णं ठाणस्स ३०४, कोई भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का सेवन करफे, यदि उस तस्स अणासोहय-ऽपरिमकते कालं करेति, नस्थि तस्स आरा- अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती। से णं तस्स ठाणस्स आलोहयपडिक्फते काल करेति अस्यि यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और तस्स आराहणा। प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसके आराधना होती है। प्रिमखू य अनयर अकिच्चद्वाणं पडिसेवित्ता, तस्स णं एवं कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर भवति पच्छा विगं अहं चरिमकालसमयसि एयस्म ठाणस्स लिया, किन्तु बाद में उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि आलोएस्लामि-जान-परिवपिजस्सामि, मैं अपने अन्तिम समय में इस अकृत्यस्थान को आलोचना करूंगा -यावत्-तपरूप प्रायश्चित स्वीकार करूंगा परन्तु उस से तस्स ठाणस्स अगालोइयऽपडिक्कते काल करेति नपि अकृत्पस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल तस्स आराहणा। कर जाए तो उसके आराधना नहीं होती। से गं तस्स ठाणस्स आलोइयपशिक्कत कालं करेड, अस्थि यदि वह (अकुत्यस्थानसेवी भिक्षु) आलोचन और प्रतिक्रमण तस्स आराहणा। करके काल करे, तो उसके आराधना होती है। भिक्खू य अनवरं अकिच्चट्ठाणं पउिसे वित्ता, तस्स पं एवं कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर भवति-"जह ताव समणोवासया विकालमासे कालं किच्चा लिया हो और उसके बाद उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो अन्नयरेसु देखलोगेसु वेषताए उवषत्तारो भवति किमंग पुग कि-'"श्रमणोपासक भी काल के अवसर पर काल करके किन्हीं अहं अणपन्नियवेवसणं पिनो लमिस्सामि ?' सिकद्ध से देवलोकों में देवरूप में उसन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अपपनिक णं तस्स ठाणस अणालोइयऽपडिक्कते कालं करेति, मस्थि देवत्व भी प्राप्त नहीं कर सकूँगा?" यह सोचकर यदि बह उस समस आराहणा। अकृत्य स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती। से गं लस्स ठाणस्स आलोइयपशिक्कते कालं करेति, अस्थि यदि वह (अकृत्यसेवी साधु) उस अकृत्यस्थान की आलोचना तस्स आराहणा। -विया. स. १०, उ. २, सु. ७-६ और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसके आराधना होती है। भायी गं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपरिक्फले कालं करेष्ठ, मायी मनुष्य उस स्थान (वैक्रियकरणरूप प्रवृत्ति प्रयोग) की . नस्थि तस्स आराहणा। आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके आराधना नहीं होती। अमायो गं तस्स ठाणस्स आलोइयपरिकते कालं करेइ, अमायी मनुष्य उस विराधना स्थान की आलोचना और अस्थि तस्स आराहणा ।-विया. स. ३, उ. २, सु. १६(३) प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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