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________________ T सूत्र ३०५ दृष्टान्त द्वारा आराधक विराधक का स्वरूप विट्ठन्तेण आराहग विराग सरूयं ३०५ तए गं गोपमे सम मग महावीर एवं बयासी प० - कहं णं भंते! जीवा माराहगा या दिराहगा वा भवंति ? ४० पोषमा से हाणामए एसि समुहबाबा नाम पताका जानिया पवित्र पुल्फिया, फलिया, हरियन - रेरिज्जमाना सिरोए। अईव जयमोममाणा उबसोममाणा चिट्ठन्ति । समाज में दीविवगा इस पुरा छावाया मंदावाया, महावामा वायंति, तथा णं बहुना ear दतिया-नाव- उबसोमेमाणा चिट्ठन्ति । अप्पेगइया वावद्दया क्या जुन्ना सोडा परिसडिय पत्त-फ-फला-सुक्क दव व ओविव मिलायमाणामिलायमानाचिति। एवामेव समणासो ! जे अम्हं निग्गंयो वा निग्गंधी वा आयरियवायाचं अंतिए मुंडे भविता मागाराओ अथगारियं पम्पए समाणेच समणानं. बहूणं समगीण, बहूणं सदा साचियाणं सावयाणं, बहूणं सम्म सहइ जाव अहियासे. बहूणं अण्णजरियाणं बहूगं मिहत्थाणं नो सम्भ सहावा एक भए पुरिसे देस णं . पण्णले । समाजसो जया णं सामुद्दा ईस पुरेवाया, पच्छावाया मंदावण्या, महावामा वायंति, तथा गं बहने बाबा स्क्याण्णा सोडा-जाक मिलायमाना मिलायमाणा चिटुन्ति । अप्पेगमा दावा पतिया पुष्किया-गाव-बसोममाणा वसोमेमाचा चिति । एवमेव समास! जो अहं जियो वा विनी वाइए समाने बहूणं अगत्यानं बहु महत्या सम्म सहद्द जामहिया बहूणं सम जाणं, बहूणं समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावि आराधक -विराधक [१३१ हृष्टांत द्वारा आराधक विराधक का स्वरूप - ३०५. किसी समय गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा प्र. - भन्तं ! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विधिक होते हैं ? उ०- गौतम 1 जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं वे वर्ण वाले बाबतुच्छा रूप है । पत्तों वाले फूलों वाले फलों वाले अपनी हरियाली के कारण मनोहर और भी से अत्यन्त मोभित होते हुए रहते हैं। 7 " हे आयुष्मन् श्रमण ! जब द्वीप सम्बन्धी कुछ-कुछ लिध वायु, वनस्पति के लिए हितकारक वायु भन्द और प्रचण्ड वायु चलती है तब बहुत से दान वृक्ष पत्र से युक्त होकर यावत्शोभित होते हुए रहते हैं । उनमें से कोई-कोई दावद्रव-वृक्ष जीर्ण जैसे ही जाते हैं, सड़े पत्तों वाले, खिरे हुए पत्तों वाले, पीले पत्तों वाले और पुष्प फल से रहित होकर सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए बड़े रहते हैं। इसी प्रकार हे आयुष्मन् भ्रमण ! जो मेरा बाज्ञानुवर्ती साधु पासीबाचार्यउपाध्याय के समीप में टि होकर हास कास्याग कर अनवार धर्म में दीक्षित होकर बहुत से साधुओं चत सी साध्वियों बहुत से आवकों और बहुत भी ि के प्रतिभूतों को सम्प प्रकार से सहन करता है-यात् विशेष रूप से सहन करता है। किन्तु बहुत से पतीविकों के तथा गृहस्थों के दुर्वनको सम्पन प्रकार से सहन नहीं करता है विशेष रूप से यावत् सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष अर्थात् साधु साध्वी को मैंने देशबिराधक कहा है । हे आयुष्मन् श्रमण ! जब समुद्र सम्बन्धी अल्प पुरोवात, पथ्य वात, मन्दवात और महावात बहती है, तब बहुत से दात्रमन्नृक्ष जी से हो जाते है जाते है यावत्-मुरझाये हुए रहते हैं । किन्तु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित पुष्पित यावत् अत्यन्त शोभायमान रहते हैं। इसी प्रकार व भ्रमण जो मेरा (आज्ञानुवर्ती) साधु वा साध्वीयावत् दीक्षित होकर बहुत से अन्यतीर्थों के और बहुत से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से प्रन करता है - यावत् विशेष रूप से सहन करता है किन्तु बहुत से साधुओं बहुत भी माध्वियों बहुत से बायकों तथा बहुत श्री श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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