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________________ १२) परमानुयोग-२ भूत और गोल से आराधक-निराधक का स्वरूप सूत्र ३०५-३०६ याणं नो सम्मं सहा-जाव-महिमासेह । एस सए -पावत्-विशेष रूप से सहन नहीं करता है उस पुरुष को पुरिसे देसाराहए पम्पसे।। मैंने देशाराधक ब्रहा है। समकाउसो! जया गं गो वीषिश्चया, णो सामुद्दगा, हे बायूष्मन् श्रमण ! जब द्वीप सम्बन्धी बोर समुद्र सम्बन्धी सि पुरेवाया, पच्छामाया, मंदावाया, महावाया अल्प पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात नहीं बहती, कार्यति, सया णं सच दाबद्दवा सक्ला जुग्णा बोरा तब पब दायद्रव-वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं यावत्-मुरझाये -जाद-मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठन्ति । रहते हैं। एकामेव समगाउसो ! जो अम्हं निम्मंथो वा निगगंधी इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण ! जो मेरा (आज्ञानुवर्ती) वा-जाव-पञ्चाए समागे, बहूर्ण समणाणं, बहूर्ण सम- साधु या साध्वी-पावत्-प्रवजित होकर बहुत से साधुओं, लोण, बहूपं साबयाणं, बहूर्ण साविधागं, गहूणं अब- बहुत सी साध्वियों, बहुत से श्रावकों, बहुत सी श्राविकाओं, स्थियाणं बहूर्ग निहत्थाणं नो सम्म सहा-जाव-अहिया- बहुत से अन्यतीथिकों एवं बहुत से गृहस्थों के दुबंधन को सम्यक सेह । एस पं मए पुरिसे सम्वविराहए पग्णत्ते । प्रकार से सहन नहीं करता है-यावत्-विशेष रूप से सहन नहीं करता है । उस पुरुष को मैंने सर्वविराधक कहा है। समपाउसो! जया में बीविन्दगा दिसामुद्दगा बि हे आयुष्मन् श्रमण ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी ईसि पुरेवाया, पच्छावाया, मंबावाया, महावाया भी अल्प पुरोवात, पश्यवात, मन्दबात और महाबात बहती है, वायति तया गं सम्वे दाबद्दया रुक्ना पत्तिया-जाव- तब सभी दावद्रव-वृक्ष पवित-यावत्-सुशोभित रहते हैं। उवसोभेमाषा चिट्ठन्ति । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निगांथो वा निग्गंधी इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण ! जो मेरा (आज्ञानुवर्ती) -जाब-पबाए समाणे बहूगं समणाणं, बहणं समणीणं, साधु या साठची यावत्-प्रवजित होकर बहुत से श्रमणों के, बहूर्ण सम्बयाणं, बहणं सावियाण, महणं अमडस्थि- बहुत सी श्रमणियों, बहुत से श्रावकों, बहुत सी श्राविकाओं, याणं, बहूणं गिहत्ययावं सम्म सहइ-जाव-अहियासेह। बहुत से बन्यतीथिकों और बहुत से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् एस गं मए पुरिसे सब्बाराहए पपसे समजाउसो। प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाराधक कहा है। एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा इस प्रकार हे गौतम ! जीव बाराधक या विराधक होते हैं। भवति । –णाया. अ. ११, सु. ३-१३ सुय-सीलावेक्खया आराहग-विराहग सहवं-- श्रुत और शील से आराधक-विराधक का स्वरूप३२६. रायगिहे नयरे जाब-एवं वयासी ३०६. राजगही नगर में—यावत-गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहाप०–अन्नजरिययाणं भंते ! एवमाइक्वंति-जाव-एवं पति - प्र०—भन्ते ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं—यावत् -- एवं खलु प्ररूपणा करते हैं कि१. सोल सेयं, २. सुर्य सेयं, (१) शील ही श्रेयस्कर है, (२) श्रुत ही श्रेयस्कर है। ३. सुयं सेयं सोल सेयं, से कहमेयं मंते ! एवं? । (३) शीलनिरपेक्ष श्रुत और श्रुतनिरपेक्ष शील श्रेयस्कर है । भन्ते ! क्या उनका ये कथन सत्य है ? उ. - गोयमा ! मं ते मन्नत स्थिया एवमाइक्वंसि-जाव- उ-गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं-यावत् एवं पष्णवेति, "जे ते एवमासु मिष्ठा ते एवमा- इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं उनका यह कथन मिश्या है। हे हंषु ।" अहं पुण गोयमा! एवमाइक्वामि-जाय-एवं गौतम ! मैं इस प्रकार कहता है-यावत् - प्ररूपणा करता हूं पहवेमि, एवं अलु मए बत्तारि पुरिसजाया पण्णता, कि चार प्रकार के पुरुष होते हैं । यथासं जहा१. सीलसंपन्ने नाम एगे जो मुयसंपन्ने । (१) एक व्यक्ति शीलसम्पन्न है, श्रुतसम्पन्न नहीं है। २. सुयसंपन्ने नाम एगे जो सीनसंपन्ने । (२) एक व्यक्ति श्रुतसम्पन्न है, शीलसम्पन्न नहीं है। ३. एगे सौलसंपन्ने वि सुपसंपन्ने वि । (३) एक व्यक्ति शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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