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चरणानुयोग-२
संयम त्याग कर आने वाले आचार्यावि के द्वारा पद देने का निर्देश
सूत्र ४४२-४४३
ओहायमाण-आयरियाइणा पद-दाण निद्देसो
संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने
का निर्देश४४२. आयरिय-उचजमाए ओहायमाणे अन्नयर बएज्जा "बो! ४४२. संयम का परित्याग कर जाने वाले आचार्य या उपाध्याय ममंसि गं ओहावियंसि समासि अय सम्मकसियव्ये।" किसी प्रमुम्न साधु से कहे कि - "हे आर्य ! मेरे चले जाने पर
अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" से य समुक्कसणारिहे समुफसियध्वे,
यदि बाचार्य निर्दिष्ट वह साधु उस पद पर स्थापन करने
योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। से य नो बसपारिहे तो सपा समरहे।
यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे
स्थापित नहीं करना चाहिए। अस्थि व इत्य अग्ने केइ समक्कसिणारिहे से सम्मकसिमब्वे । यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे
स्थापित करना चाहिए। नस्थि य इत्य अन्ने केइ समुस्कसणारिहे से जेब समुक्क- पदि संघ में अन्य कोई भी साध उस पद के योग्य न हो तो लियब्वे।
आचार्य निर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना
चाहिए। तं सि च गं समुक्किट्ठसि परो वएज्जा---
उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद यदि गीतार्थ
साधु कहे कि"तुस्समुश्किळं ते अजो निविखवाहि।"
"हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो, अतः इस पद को तस्स णं निरिणवमाणस्स नस्थि के छए बा परिहारे वा। छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो
वह दीक्षा-छेद मा परिहार प्रायश्चित का पात्र नहीं होता है। जे साहम्मिया बहाकप्पेषं मी उद्वार विहरति ।
जो साधर्मिक साघु कल्प के अनुसार उसे आचार्यादि पद सम्बेसि तेसिं तप्पसिय छए वा परिहारे वा।
छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी सार्मिक साधु उक्त कारण से
-यव. उ. ४, सु. १४ दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। पावजीवी बहस्सुयाणं पब-निसेहो
पाप जीवी बहुश्रुतों को पद देने का निषेध४४३. भिक्खू य बहुस्सुए बम्मागमे बटुसो बहु-आगाढा-गाडेसु ४४३. बहुश्रुत, बहुआगमश भिक्षु अनेक प्रगाढ़ कारणों में होने
कारणेसु माई, मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावग्जीवाए पर यदि अनेक बार मावा पूर्वक मृषा बोले या पाप भनों से तस्स तप्यत्तिय नो कप्पा आपरियसं वा-जावाणावच्छेइ- अपवित्र आजीविका करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन यत्तं वा उद्दिसिसए वा धारेत्तए था।
आचार्य-यावत् - गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं
कल्पता है । गणावच्छेदए बहुस्सुए भागमे बहुसो बहु-आगाठा-गाठेसु बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ गणावच्छेदक अनेक प्रगाढ़ कारणों के कारणेमु माई, मुसाबाई, असुई, पावजीवो, जावजीबाए होने पर यदि अनेक बार माया पूर्वक मृषा बोले या पार श्रतों से तस तपत्तियं नो कप्पर आयरियत्तं वा-जाद-गणाबन्छ- अपवित्र आजीविका करे तो उस उक्त कारणों से यावज्जीवन पत्तं वा उद्दिसित्तए या धारेत्तए वा।
आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं
कल्पता है। आयरिय-उबजमाए बटुस्सुए बम्मागमे बहुसो-यहु-आगाढा- बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ आचार्य वा उपाध्याय अनेक प्रगाढ़ गाम कारणेसु माई, मुसाबाई, असुई, पायजीवो, जायज्जी- कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या बाए तरस तप्पत्तिय नो कप्पद आयरियतं वा-जाव-गणाव. पापभुतों से आजीविका करे तो उसे उक्त कारगों से याबजजीवन च्छेदयत्तं वा उहिसित्तए वा धारेत्तए था।
आचार्य - पावत् गणाबच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं
कल्पता है। बहवे भिक्षुणो बहुस्मुथा यम्भागमा बसो बहु-आगाढा- बहुश्रुत, बहुमागमज्ञ अनेकः भिक्ष अनेक प्रगाढ़ कारणों के