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________________ सूत्र ३३५.३३६ निर्ग्रन्य-निग्रन्थी के द्वारा सहज दियभोग का निदान करना आराधक-विधिक [१६३ ततो विमुच्चमागो मुज्जो एल-मूयत्ताए पश्चायति'। वहाँ से वे देह छोड़कर पुन: भेड़-बकरे के समान मनुष्यों में मूक रूप में उत्पन्न होते है। एवं खतु समणाउसो ! तस्स णिवापस इमेयास्वे हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिपावए फल-विवागे-जं जो संचाएति केवलि-पण्णतं णाम है कि वह केवलि प्रश्नप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं धम्म सहहितए वा, पसिइतए वा, रोइतए वा। रुचि नहीं रखता है। -रसा. द. १०, सु. ३८ (७) णिग्गंथ जिग्गंथोए सहज दिमाग-णिशग करगे- (७) निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्यो के द्वारा सहज दिव्यभोग का निदान करना ३३६. एवं खलु समणाउमो ! मए धम्मे पण्णते-जाव'-से य ३३६. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्ररूपण किया है परक्कममाणे माणुस्सएमु काम-भोगेसु निश्चेवं गल्छेज्जा । यावत्-संयम की साधना में पराकम करते हुए निर्ग्रन्थ मानव सम्बन्धी काम-भोगों से विरक्त हो जाय और वह यह मोचे वि''माणुहसागा स्त्रलु काममोगा अधुषा-जाव'-विष्यजहियब्धा । "मानव सम्बन्धी काम-भोग अभ्र व है-पावत-स्याज्य है। संति उड्ड देवा देवलोगति । से णं तस्य पो असि देवाणं जो ऊपर देवलोक में देव हैं--यहाँ वे अन्य देवों की देवियों देवीओ अभिजुजिय-अभिनं जिय परियारेइ, णो अपणो चेव के साथ विषय सेवन नहीं करते हैं तथा स्वयं को विकुक्ति अप्पाणं वेविय-वे उन्विय परियारे, अप्पणिज्जियाओ देवियों के साथ भी विषय सेवन नहीं करते हैं, किन्तु अपनी देवीओ अभिजु जिय-अभिजंजिय परियारे ।" देवियों के साथ कामक्रीड़ा करते हैं।" "जए इमस सुपरिय-तव-नियम-भचेरवासस्स कस्लाणे "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं फलवित्ति विसेसे अस्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाई एया. ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी सवाई विश्वाई भोगाई मुंजमाणे विहरामि, से तं साहू।" आगामी काल में इस प्रकार के दिव्य भोग भोगता हुआ विवरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" एवं खलु समणाउसो । णिगंथो वा णिग्यंथी वा गियाणं हे आयुष्मान् घमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निग्रन्थी किच्चा-जाव-देवे भवद महिडिवए-जाव-दिवाई मोगाई (कोई भी) निदान करके-पावत् --देव रूप में उत्पन्न होता है । मुंजमाणे विहरह। वह बहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है -यावत् --दिव्य भोगों को भोगता हुआ बिचरता है। से ण तत्थ णो अपणेसि वेवाणं देवीओ अभिजुजिय-अभि- वह देव वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन जंजिय परियारेज, णो अपणो पेव अप्पाणं विश्विय- नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुपित देवियों के साथ भी विश्विय परिपारेड, अप्पणिज्जियाओ बेबीओ अभिमुंजिय- विषय सेवन नहीं करता है, किन्तु अपनी देत्रियों के साथ विषय अभिजुजिय परियारे । सेवन करता है। से गं तामओ देवलोगाओ पाउपखएण-जाव- पुमत्ताए पस्चा- वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर--यावत्पाति-जाव- तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स-जाव-मत्तारि- पुरुष रूप में उत्पन्न होता है-यावत्-उसके द्वारा किसी एक पंच अबुसा चंव अम्मुटुति "पण देवाणुपिया [ कि कोमो को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते -जावक ते आसगस्स सयह।" हैं और पूछते है कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें-पावत् आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" '--.- . . .. : वहाँ निदान कृत एक पुरुष सम्बन्धी पृच्छा के बीच में बहुवचन का पाठ शुरू होकर अन्त तक बहुवचन में पूर्ण होता है। ऐसा ज्ञात होता है कि लिपि प्रमाद से कोई सम्बन्ध जोड़ने वाला पाठ छूट गया है। २-८प्रथम निदान में देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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