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________________ सूत्र ८९४-०१६ धर्म में पराक्रम के लिए फाकिणी और आम्र का दृष्टांत www पन्युध्यन्नपरायणे । सभी फम्मगुरु जन्तु, व आगयाएले मरतमि सोई । तो आउपरिक्खीणे, चुया देहा विहिंसमा । आसुरियं दिसं बाला, मच्छन्ति अवसा तम ॥ -- उस. अ. ७, गा. १-१० धम्मस परषकमा अंबागियो विट्ठन्तो१५ नहाए हे. सहत्रां हारए नरो अपत्थं अम्यगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए ॥ - एवं माणुसगा कामा, देवकामाण अन्तिए । सहनिया को नाकामा व दिखिया ॥ माता पत्र ठि जाई जीवन्ति दुम्मेहा ऊणे बाससयाउए || धम्मस्त परक्कमट्ठा वणिगदितो-१६. जहा व तिथि पिया दिया। गोलह का एगो ॥ एगो मूलं पि हारिसा आम्मतत्वाणि । वारे वम एसा एवं धम्मे वियागह ॥ माणूसुतं भवे मूलं साभो देवराई भये मूलच्छेएण जीवाणं, नरगतिक्षित्तणं धुवं ॥ हओ गई बालस्स, आवई वसूलिया । देवमाणूसच णं लिए सोलास ॥ सओ जिए सई होइ, दुविहं योग्यहं गए। बुल्लहा तस्स उम्मग्गा बढाए सुचिरादवि ॥ एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं व पंडियं । मूलियं ते पवेसन्ति माणसं जोगिमेति ये ।। प्रज्ञावान पुरुष को देवलोक में अनेक वर्षों की स्थिति होती है वह ज्ञात होने पर भी मुर्ख मनुष्य सौ से कम जन --- उत्स. अ. ७, गा ११-१३ के लिए उन दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है। धर्म में पराक्रम के लिये वणिक का दृष्टांत ८१६. जैसे लीन वणिक पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ प्राप्त करता है, एक मूल घन लेकर लौटता है। और एक मूल को भी गंवाकर वापस आता है, यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना चाहिए। मनुष्यत्व यह मूलधन है और देवगति लाभ रूप हैं अतः के साथ भी निश्चित हो नरक और विच गति में जाते हैं। मायाहि सिखाहि जे नरा गिहिसुखया । माजी कम पाचि ॥ atर्याचार जेसि तु विउला सिक्सर, मूलियं ते अच्छिया । सीलवन्ता सविसेसा, अबीणा जन्ति देवयं ॥ [४०७ कर्मों से भारी बना हुआ एवं वर्तमान सुखों में तल्लीन वह जीव मरणान्त काल में उसी प्रकार शोक करता है जिस प्रकार पाहुने के आने पर मेमना । फिर आयु क्षीण होने पर वे नाना प्रकार की हिमा करने वाले अज्ञानी जीव देह छूटने पर परवश होकर अन्धकारपूर्ण नरक में जाते हैं । धर्म में पराक्रम के लिए काकिणी और आम्र का दृष्टांत१५. जैसे कोई मनुष्य बाकी के लिए हजार मोहरों को मेवा देता है और जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर राज्य से हाथ धो बैठता है । उसी प्रकार देव सम्बन्धी कामवोगों के सामने मनुष्य राम्बन्धी काम भोग भी काकिणी और आम के समान तुच्छ हैं । दिव्य और दिव्य-काम-भोग मनुष्य की आयु और कामभोगों से हजार गुणा अधिक है। अज्ञानी जीव की ये दो प्रकार की गति होती है, वहाँ उसे बन्धनादि कष्ट प्राप्त होते हैं। वह लोलुप और तंत्रक पुरुष देवा और मनुष्य की पहले ही हार जाता है। द्विविधदुईति में गया हुआ जीव सदा हारा हुआ होता है। उटा उनसे बाहर निकाल के बाद भी दुर्लभ है। इस प्रकार हारे हुए को देखकर तथा बाल पण्डित की तुलनाकर जो मानुषी योनि में आते हैं वे मूलधन के साथ प्रवेश करते हैं। जो मनुष्य विविध परिणाम वाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुनती हैं, वे मानुषी यांनि में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल अवश्य पाते हैं । जिनके पास बिल मिला है. ये शील-सम्पन्न और उत्तरोतर गुणों को प्राप्त करने वाले दीन पुरुष मनुष्यत्व का अतिक्रमण करके देव को प्राप्त होते है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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