SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुत्र १३१-५३५ अनुपशान्त भिक्षु को पुनः स्वगण में भेजना संघ व्यवस्था [२५५ अणुवसमस्स भिक्खुस्स पुणरवि सगणे पढवण- अनुपशान्त भिक्षु को पुनः स्वगण में भेजना५३१. भिक्खू य अहिगरणं कटु त अहिगरणं अविओसवेत्ता ५३१. भिक्षु कलह करके उसे उपशान्त किये बिना बन्य गण में अन्नं गणं जवसंपग्जित्तागं विहरसिए, सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस गण के स्थविर को चाहिए कप्पड तस्स पंचराईदियं यं कटु परिणिश्वाधिय परि- कि वह उसे पांच दिन-रात की दीक्षा का छेद देकर और उसे णिध्वाविय बोच्च पि तमेव गणं पडिनिज्जाएयय्ये सिया, सर्वथा शान्त प्रशान्त करके पुनः उसी गण में लौटा दे। अयवा बहा वा तस्स गणस्स पत्तिय सिया। - झप्प. उ. ५, सु, ५ जिस गण से बह आया है उस गण को जिस प्रकार की प्रतीति हो उसे उसी तरह करना चाहिए । खमावणाफल क्षमापना का फल(१२. ५०.-- याए भने जब अपय? ५३२.५० --मन्ते ! क्षमा करने से जीव क्या प्राप्त करता है? 30- स्खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयह। परहायण- उ० - क्षमा करने से वह मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता भावभुवगए य सव-पाण भूय-जीव सत्तंसु, मित्तीभावमुप्पा- है। चित्त प्रसन्नता को प्राप्त हुआ व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव एइ। मित्तीभावमुवगए यायि जीवे भाविसोहि काउण और सत्वों के प्रति मंत्री-भाव उत्पन्न करता है। मंत्री-भाव को निभए भवाइ। -उत्त. अ. २६, सु. १६ प्राप्त हुआ जीव भावों को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है। अहिगरण करण पायच्छित्त सुत्ताई कलह करने के प्रायश्चित्त सूत्र५३३. जे मिक्खू गवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ, उप्पा- ५३३. जो भिक्षु नवीन अनुत्पन्न कलह को उत्पन्न करता है, उत्पन्न एस या साइज्जद । करवाता है या उत्पन्न करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विभोसबियाई पुणो जो भिक्षु क्षमापना द्वारा उपशान्त पुरामे झगड़ों को पुनः उदीरेइ, उदीरेंत वा साइज्जर। उत्तेजित करता है, उत्तेजित करवाता है या उत्तेजित करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जद मासियं परिहारट्ठाणं जग्घाय। उसे मासिक उधानिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ४, सु. २५-२६ एगागी आगय समणस्स संवसावणं पायच्छित्त सुतं- एकाकी आगन्तुक भिक्षु को बिना निर्णय रखने का प्राय श्चित्त सूत्र५३४ जे मिक्खू बहियावासियं आएस पर तिरायाओ अविफालेता ५३४. जो भिक्षु बाहर से आये हुए आगन्तुझ अक्रेले भिक्षु को संवसायेह, संवसावेत वा साइज्जइ। पूछताछ कर निर्णय किये बिना तीन दिन से अधिक रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अगुग्याइयं । उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. १३ आता है। कलह कारहिं सद्धि आहार करण पायच्छित्त सुतं-- कलह करने वालों के साथ बाहार करने का प्रायश्चित्त ५३५. जे मिक्सू साहिगरण अविओसविण पाठ अकरपायच्छित्तं ५३५. कोई भिक्षु कलह करके उसका स्वयं उपशमन न करे और पर तिरायाओ विष्फालिय अविष्कालिय संभंजद्द संभुजतं न प्रायश्चित्त से तो उसे उस सम्बन्ध में पूछताछ कर या बिना वा साइज्जइ। पूछताछ किये तीन दिन से अधिक उसके साथ एक मण्डल में बैठकर जो भिक्षु आहार करता है, करवाता हैं या करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवाजइ चाउमासिय परिहारहाणं अग्धाइयं। उसे अनुयातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१०, सु. १४ आता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy