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________________ ३८२] चरणानुयोग – २ मातरं पितरं पोस एवं लोगो भविस्सा पोते पिछ-मातरं ॥ एवं उत्तरा महतल्लावा, पुसा से तास खुड़गा । भारिया ते गवा तात, श्रा सा अभ्णं जणं गमे ॥ हि बौयं पितात पासामो, जानु ताय सयं हिं ॥ गं न तेषामणो सिया । अकामगं परचकम्मं को ते वारेमरति ॥ जं किचि अणगं सात, तं पि सव्वं समीकसं । हिरणं व्यहारावी तं पिवास से वयं ॥ इच्छेव णं सुसहंति, कालुनिय समुट्ठिया विबद्धो नातिसंगेहि ततोऽगारं पधावति ॥ महादेव बने जायं, मासुमा विद्यति एवं णं परिबंधति जायमी असमाहिणा || विवो णातिसंगेहि, हस्थी वा वि नवग्गहे । विट्टतो परिसध्यंति धूतीगो व्व अबूरगा ।। मोहसंग सम्बन्धी उपस एते संचा मनुस्सा, पाताला व अतारिमा । वासंति नातिच्छिता ॥ तंभ परिणाम, सच्चे गंगा महासभा । जीवितं भाषिकसेना, सोच्या धम्ममन्तरं ॥ महिने संति आवट्टा, कासवे पवेदिता । बुद्धा त्यासति सोहि ॥ ALM - सूय. सु. १. अ. ३, उ. २, सु. २.१४ रायाणी शयमच्या य, माहगा अनुव खतिया । निमंतयंति मोगे, भिक्खु साहुजोदिगं ॥ हायस्स रह जाह, बिहारगमणेहि य । मुंज भोगे इमे साधे, महरिसी पूजयामु तं ॥ कत्यगंधमलंकार, इत्वीय रामणाणि य जाहिगाई भोगाई, भाजमो पूजया ।। सूत्र ७७३ हे तात! तुम माता-पिता का पोषण करो, इस प्रकार तुम्हारा यह लोक और परलोक सफल हो जायेगा। लौकिक आचार भी यही है कि पुत्र माता-पिता का पालन करे । हे तात ! तुम्हारे उत्तम और मधुरभाषी ये छोटे-छोटे पुत्र हैं। तुम्हारी पत्नी भी ययौवना है। वह कहीं दूसरे मनुष्य के पास न चली जाये । सामोतात ! घर चलें। तुम काम मत करना। हम काम करने में समर्थ हैं, हम पुनः तुम्हें घर में देखना चाहते है। आओ अपने घर वलें । हे तात | घर जाकर तुम पुनः आ जाना। इतने मात्र से तुम अश्रमण नहीं हो जाओगे। घर के काम में इच्छा रहित रह कर अपनी रुचि अनुसार करने में तुमको कौन रोक सकेगा । है तात ! तुम्हारा जो कुछ ऋण था उस सबको हमने चुका दिया है। आवश्यक कार्य के लिए तुम्हें जो धन की आवश्यकता होगी, वह भी हम तुम्हें देंगे। इस प्रकार वे करुण ऋन्दन करते हुए उपरोक्त प्रकार से शिक्षा देते हैं। तब ज्ञातिजनों के सम्बन्धों से बंधा हुआ वह पर लौट जाता है । जिस प्रकार वन में उत्पन्न बुझ को लता वेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार ज्ञातिजन उसको असमाधि में जकड़ देते हैं। जैसे नया पड़ा हुआ हाथी गांधा जाता है वैसे ही यह शातियों के संग से बंध जाता है तथा सातिजन उसके पीछे से ही चलते हैं जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पीछे । मनुष्यों के लिए ये ज्ञातिसम्बन्ध समुद्र की भांति दुस्तर हैं । उनमें मूच्छित होकर असमर्थ साधक क्लेम पाते हैं। सभी संग महान कर्म बंध के हेतु हैं इसे जानकर तथा अनुतर धर्म को सुनकर भिक्षु गृहवासी जीवन की आकांक्षा न करे । काश्यप गौविय भगवान् महावीर ने और भी ये आवरी कहे हैं जिनसे ज्ञानी दूर रहते हैं धीर अशानी उनमें सजाते हैं। राजा, राजमन्त्री ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय संयमजीवी भिक्षु को भोगों के लिए करते हैं। " महर्षि! तुम हाथी घोड़े रथ और पाली आदि में बैठकर उद्यान कीड़ा के द्वारा इन प्लाघनीय भोगों को भोगो । महर्षि | हम आपका आदर सत्कार करते हैं । हे आयुष्मम् ] वस्त्र, मुर्गान्धित पदार्थ, आभूषण, विषया 1 पलंग और अपन सामग्री आदि इन भोगों को भोगो, हम आपका आदर सत्कार करते है ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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