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________________ ३२८] चरणानुयोग - २ प्रस्थापना में प्रतिसेवना करने पर आरोपणा जे भिक्खू चाम्बासिय वा साइरेव बाबा पंचभागिय साइएस परिहारट्ठा पाणं अन्यपरं परिहारद्वाणं परिसेविता आनोएडा, सिविय आलोत्माथे उमणिययं वहता कर वैयावडियं । विए बिपा से विकसितरमेव आहे तिथा। १. पुटिवं परिसेवियं पुर्वियं आलोइयं २. पुषि पडिसेवियं पच्छा आलोयं, २. पडा पहिषियं निवं आलो ४. पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं । १. अलि दिए अपलिवियं २. अपलिउ थिए पलिज दियं, २. लिए अपलिि ४. पल दिए सि चियं । आलोएमाणस्स सध्वमेयं सकयं साहनिय आह जे एयाए पट्टषणाए पट्टषिए निश्सिमाणे डिसेवेह से वि कसितत्व यम्बे लिया। जे बहुतो विचमा बहुवि सारेग atanifer श बहुसो वि पंचमासयं वा बहुसो वि साइरेग-पंथमासियं वा, एएस परिहारट्ठाणानं अनपरं परिहाराणं पचिविसावलोवा-अपलिज धिय आलोएमाणे ठवणिज्जं व्ववत्ता करणि मावडियं । afty fe डिसेविता से विकसिणे सत्येव आहेयव्वे सिया । १. आलो सूत्र ६५६ - जो भिचातुर्मासिक या कुछ अधिक मोतिक, पंच मासिक या कुछ अधिक पंचनासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे माया सहित आलोचना करने पर आसेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायनिल रूम परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वैदा करनी चाहिए यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवन करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित में सम्मिलित कर देना चाहिए। (१) पूर्व में प्रतिमेति दोष भी पहले आलोचना की हो, (२) पूर्व में प्रतिरोधित दोष की पीछे आलोचना की हो. (३) पीछे से प्रतिवित शेष की पहले आलोचना की हो, (४) पीछे दोष की पीछे आलोचना की हो। (१) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके भावारहित आलोचना की हो, (२) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके गायासहित बालोचना की हो, (३) माया सहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, (४) माया सहित बालोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना को हो । इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्वं स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत प्रायश्वित में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो इस प्रायश्चित रूप परिहार तप में स्थापित होकर वहन किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका भी पूर्व प्रदत प्रायश्चित में आरोपित कर करते हुए भी सम्पूर्ण प्राय देना चाहिए। जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके बलोचना करे तो उसे पुनः माया-रहित आलोचना करने पर जावित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वैयावृत्य करनी चाहिए । यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। (१) पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो,
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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