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________________ सूत्र ६५५-६५६ प्रस्थापना में प्रतिसेवमा करने पर आरोपणा तपाचार [३२७ अपलिचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं षा, साइरेग- माया-रहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के चाउम्मासियं वा, पंचमालियं या, साइरेग-पंचभासियं वा, अनुसार चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासिय वा, साइरेग-पंच. माया-सहित आलोचना करने पर पंचमासिक या कुछ अधिक मासियं वा, छम्मासियं वा । पंचमासिक या छमासिक प्रायश्चित्त बाता है। सेण पर पलिउंचिए या, अपलिउंचिए वा ते चेत्र छम्मासा ।' इसके उपरान्त माया-सहित या माया-रहित आलोचना -वव. उ. १, सु. १-१४ करने पर वही छह मासिक प्रायश्चित्त आता है। पतृवणाए पडिसेवणाकरणे आरोवणा प्रस्थापना में प्रतिसेवना करने पर आरोपणा६५:. जे भिक्खू घाउम्मासियं बा, साइरेग-चाउम्मासिय था, ६५६. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंच पंचभासियं वा, सारेग-पंचमासियं बा, एएसि परिहारट्ठा- मासिक या कुछ अधिक पंचमासिक-इन परिहारस्थानों में से णाणं अण्णवरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएम्जा- किसी एक परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके बालो चना करे तो उसेअपलिउंचिय आलोएमाणे ठवणिज्ज ठवइत्ता करणिज्ज माया-रहित आलोचना करने पर आरोपित प्रतिसेवना के बेयावधियं । अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वयावृत्य करनी चाहिये। ठविए वि पडिसेवित्ता, से विकसि तत्व आहहेयब्वे यदि वह परिहार तप रूप में स्थापित होने पर भी किसी सिया । प्रकार को प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलिल कर देना चाहिये। १. पुम्बि पडिसेवियं पुस्वि आलोइयं, (१) पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, २. पुग्वि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं, (२) पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो, ३. पच्छा एडिसेविय पुग्विं आलोइयं, (३) पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हां, ४. पच्छा पडिसेबियं पच्छा आलोइयं, (४) पीछे से प्रतिसेवित दोष की पीछे से आलोचना की हो । १. अपलिउचिए अपलि चियं, (1) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके माया. रहित आलोचना की हो, २. अपलिउचिए पलिउ चियं, (२) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके माया सहित आलोचना की हो, ३. पलिउचिए अपलिज चिय, (३) माया-सहित आलोचना करने का संकल्प करके माया रहित आलोचना की हो, ४. पलिज चिए पलिनियं, (४) माया-सहित आलोचना करने का संकल्प करके माया सहित आलोचना की हो । आलोएमागस्स सध्वमेयं सकयं साहणियं आरुहेयध्वे, इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जे एयाए पट्टवणाए पटुषिए निम्बिसमाणे पडिसेवेद्र, ते वि जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर बहन कसिणे तत्व आरुहेयको सिया। करते हुए भी पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदन प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। १ नि. उ. २०, सु. १-१६
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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