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________________ (१) दीक्षा प्रवज्या ग्रहण : विधि-निषेध–१ घमंतराय कम्मखओवसमेणं पक्ष्वज्जा धर्मान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से प्रवज्या*१३३९. ५०-असोचा गं भंते ! केवलिस वा-जाव-सप्पक्खिय- १३२९. प्र.--भन्ते ! केवली से-पावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका उवासियाए वा केवलं मुण्ड मवित्ता अगाराओ अग- से बिना सुने कोई जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर गारियं पवएग्जा? प्रजित हो सकता है? उ०—गोयामा ! असोच्चा पं फेलिस्स वा-जाव-तप्पक्खिय- 30-गौतम ! केवली से --यावत्-केवलिपाक्षिक उपा उवासियाए वा अरगतिए केवल मुंडे भवित्ता अगा- सिका से सुने बिना कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थादास राओ अणगारियं पधएज्जा, अत्यगतिए केवल मुंडे को छोड़कर प्रअजित हो सबता है और कोई एक जीव मुण्डित मविप्ता अगाराओ अणगारियं नो पब्वएग्जा। होकर गृहस्थावास को छोड़कर पनजित नहीं हो सकता है। प-से केणठे भंते । एवं बुच्चद - प्र. . भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है? असोच्या गं फेवलिस वा-जाव-तप्पक्खिय-उवासियाए केवली रो-यामत् केवलिपाक्षिक उपासिका से सुने था अन्यगतिए केवल मुंहे भक्त्तिा अगाराओ अण- बिना कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर गारिणं परवएज्जा, अत्यगलिए केवलं मुंरे भवित्ता प्रत्रजित हो सकता है और कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थाअगरराओ अणगारियं नो पश्वएज्जा वास छोड़कर प्रवजित नहीं हो सकता है ? उ.- गोयमा ! जस्स ण धम्मतराइयाण कम्माण खो- उ. - गौतम ! जिराके धर्मान्तराप कर्मों का क्षयोपशम पसमे कडे भवइ से णं असोचा फेवलिस वा-जाब- हुआ है वह केवली से—यावत् – केबलिपाशिक उपासिका से तप्पक्खिय-जवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अगा- सुने बिना मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर प्रवजित हो रामो अणगारियं पश्य एज्जा । सकता है। जस्स ग धम्मंतराइया कम्मागं खओवसमे नो कई जिसके धर्मान्तराव कर्मों का प्रयोपशम नहीं हुआ है वह भवइ, से णं असोच्चा केवलिस वा-जाव-तपक्खिय- केबली से यावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका से सुने बिना उत्रासियाए वा केवल मुझे भवित्ता अगाराओ अण- मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़बार प्रजित नहीं हो गारियं नो पञ्ष एज्जा। सकता है। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्च ___ गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किअसोच्चा जं केलिस्स या-जाव-सप्यक्खिय-उवासियाए केवलि से-पावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका से मुने अत्यगाइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं बिना कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर पच्चएज्जा अत्थेगइए केयसं मुंडे भवित्ता अगाराओ प्रत्रजित हो सकता है। और कोई एक जीव मुण्डित होकर अणगारियं नो पवएज्मा ।' गृहस्थावास को छोड़कर प्रवजित नहीं हो सकता है। ...वि. ग. ६, उ. ३१, सु. ४ यह सूत्रांक भाग १ से आगे चालू है। प्रथम भाग में १३३८ तक सूत्र हैं। १ (क) अनगार धर्म की प्राप्ति में चारित्रमोहनीय कर्म अन्तराय करता है अतः धर्मान्तराय कर्म, चारित्रमोहनीय कर्म ही है-- उसके क्षयोपशम से प्रवज्या ग्रहण की जा सकती है, ऐसा समझना चाहिए। (च) वि. स.६, उ. ३१, सु. १३ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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