SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र २५४-२५८ प्रत्याख्याम का फल संयमी जीवन १०३ पच्चक्खाण फल-७ पच्चक्खाणं-फल प्रत्याख्यान का फल-- २५४. ५०-पच्चक्खाणणं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? २५४.७०-भन्ते ! प्रत्याभ्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? ज० .. परचक्खाणेणं आसक्दारा निम्ड ।। उ.--प्रत्याख्यान से वह आथव-द्वारों का निरोध करता है। -उत्त, अ, २६, सु०१५ संभोग-परचक्वाण-फलं संभोग प्रत्याख्यान का फल२५५. प० संमोग-पच्चक्खाणं भंते 1 जीबे कि जणयइ ? २५५, प्र मन्ते ! संभोग के प्रत्याख्यान से जोब क्या प्राप्त करता है? उ० . संभोग-पच्चक्लागणं आलंबणाई खवेह निरासंदणस्स उ०-संभोग प्रत्याख्यान से जीव का परावलम्बीपन छूट य आययट्ठिया जोगा भवंति । सएणं लाभेणं संतुस्सह जाता है। स्वावलम्बी होने से उसकी सभी प्रवृत्तियां आत्म परलाभं नो आसावेद, नो तपकेह. नो पीहेइ, नो प्रयोजन वाली हो जाती हैं, वह अपने लाभ में मन्तुष्ट रहता है। पत्थेइ, नो अभिलसइ । परलार्म अणासायमागे, पर के लाभ का उपभोग नहीं करता कल्पना नहीं करता, इच्छा अतक्केमाणे, अपोहेमाणे, अपत्थेमाणे, अमिलसमाणे. नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है । दुच्च मुहसेज उपसंपज्जित्ता ण विहर। इग प्रकार पर के लाभ का आस्वादन, कल्पना, चाहना, प्रार्थना ... उत्त. अ २६. सु. ३५ और अभिलापा न करता हुआ वह दूसरी स्थलाम संतोष-सुख शय्या (प्रथम सुख-शव्या संवम) को प्राप्त करके विवरण करता है। उहि-परचक्खाण-फलं उपधि प्रत्यख्यान का फल .. २५६ १०- उवहिपच्चक्खाणेणं मन्ते । भीखे कि जणयह? २५६ प्र०-भन्ते उपधि (वस्त्र आदि उपकरणों) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? उ० . उवहिपच्चवखाणं अपलिमन्य जणयह । नियहिए - उपधि के प्रत्याख्यान से वह स्वाध्याय ध्यान में होने गं जीवे निक्कचे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सई। वाली क्षति से बच जाता है। उपधि रहित मुनि अभिलाषा से -उत्त, अ. २०, सु. ३६ मुक्त होकर उपधि के अभाव में मानसिक संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। आहार-पच्चक्खाण-फलं आहार प्रत्याख्यान का फल२५७ प०-आहारपच्चक्खाणेणं मन्ते ! जीवे कि जणयह ? २५७.३० भन्ते ! आहार-प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-आहारपच्चखाणेगं जीवियासंसप्पओगं वोग्छिदइ, उ०—बाहार-प्रत्याख्यान से बह जीवित रहने की लालसा जोवियासंसपोगं शेच्छिन्निसा जीवे आहारमंतरेणं करना छोड़ देता है। जीवित रहने की अभिलाषा छोड़ देने न संकिलिस्सद । - उत्त. अ. २६, सु. ३७ वाला व्यक्ति आहार के बिना (तपस्या आदि में) संक्लेश को प्राप्त नहीं होता । कसाय-पच्चक्खाण-फलं -- कषाय-प्रत्याख्यान का फल - २५८. ५०-फसायपञ्चपस्त्राणं मन्ते । जीवे कि जणयह ? २५८.०-भन्ते ! कषाय (क्रोध मान, माया और लोभ) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? ज-सायपच्चखाणेणं वीयरागमा जणयह । वीयराम- ज० - कषाय-प्रत्याख्यान से वह वीतराग-भाव को प्राप्त भावपडिबग्ने य जीवे समसुहदुरले भवा होता है। वीतराग-भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दुःख में सम -इत्त, अ. २६ सु. ३८ भाव को प्राप्त होता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy