SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ५७२-५७३ योग प्रतिसलीनता के भेद सपाचार [२७७ (४) लोभ के उदय का निरोध करना अथवा उदय प्राप्त लोभ को निष्फल करना। यह कषायप्रतिसंलीनता तप है। ४. लोहस्सुवणिरोहो वा, उवयपतस्स मा लोहस्स विफलीकरगं । से तं कसायपरिसलीगया।' –वि. स. २५, उ. ७, सु. २१३ जोगपडिसंलोणयाए भेया-- ५७३. प०से कि जोगपडिसलीगया? योग प्रतिसलीनता के भेद५७३. प्र०--योग-प्रतिसलीनता क्या है-वह कितने प्रकार उ-जोगपडिसलीणया तिविहा पण्णता, लं जहा--- उ.-योग-प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की बतलाई गई है, यथा१. मणजोगपडिसंलोणया, (१) मनोयोग-प्रतिसंलीनता, २. वयजोगपजिस लीगया, (२) बचन योग-प्रतिसंलीनता । ३. कायजोगपडिसलीणया। (३) काययोग-प्रतिसंलीनता। प०-से कि तं मगजोगडिसंलोणया ? प्र.-मनोयोग-प्रतिसंलीनता क्या है—वह कितने प्रकार की है? उ०-मगजोगपडिसलीगया तिविहा पण्णता, तं जहा- 3०--मनोयोग प्रतिसलीनता तीन प्रकार की है, यथा१. अकुसलमणणिरोहो वा, (१) अशुभ मन का निरोध करना । २. कुसलमणउदीरणं बा, (२) शुभ मन का उदीरण करना। ३. मणम्स वा एगत्तीमाव करणं । (३) मन को एकान करना। से तं मणजोगपरिसंलोणया। यह मनोयोग प्रतिसलीनता है। प.-से कितं वयनोगपडिसलीण्या? प्र०-वचन योग-प्रतिसंलीनता क्या है-वह कितने प्रकार की है? ज०-वयनोगपडिसलीणया तिविहा पम्पत्ता, तं जहा- उ०-वचन योग-प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की है, यथा१. अकुसलवणिरोहो वा, (१) अशुभ वचन का निरोध अर्थात् दुर्वचन नहीं बोलना । २.कुसलवण्उदोरणं वा, (२) सदवचन बोलने का अभ्यास करना। ३. वाए वा एगती भाषकरणं । (३) मौन रहना। सेत बयबोगपरिसंलोणया। यह वचनयोग प्रतिसलीनता है। प०-से किसं कायशोगपडिससीणया ? प्रा-काययोद-प्रतिसंलीनता क्या है ? उ.-कायजोगपरिसंलीणया गं सुसमाहिय पसंत साह- उ० -हाथ, पैर आदि सुसमाहित शांत और संकुचित कर, रिय माणियाए कुम्मो इव गुसिदिए मल्लीणे पल्लोणे कछुए के सदृश अपनी इन्द्रियों को गुप्त कर, सारे शरीर को संवृत कर सुस्थिर होना काययोग प्रतिसलीनता है। सेतं कायजोगपदिसंलोणया। य' काययोग प्रतिसलीनता है। से तं जोग पडिसलीणया । यह योग-प्रतिसलीनता है । –वि. स. २५. ३. ७, सु. २१४.२१५ १ (क) उव. सु. ३० (ख) चत्तारि पडिसलीणा पन्नत्ता, तं जहा(१) कोहपडिसलीणे, (२) माणपहिसलीणे, (३) मायापरिसलीगे, (४) लोहपडिसंलोणे। -ठाणं. म. ४, उ. २, मु. २७८ २ चत्तारि पडिसलीणा पण्णता, तं जहा(१) मणपडिसंतीणे, (२) वइपडिसलीणे, ३) कायपडिसलीणे, (४) इंदियपडिसंजीणे । -ठा. अ. ४ उ.२, सु. २७५
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy