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________________ ७२|चरणानुयोग : प्रस्तावना वही परिस्थिति विशेष में अबाह्म हो जाती है और जो अग्राह्य अवलम्बन लेगा है, निर्णय दे। जैन परम्परा में गीतार्थ उस होती है वही ग्राह्य हो जाती है। नितीय भाष्य में स्पष्ट रूप आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति को से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आप- आदि छेद सूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो । साधक को उत्सर्ग वादिक स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं । सत्य यह है कि देश, काल, और अपवाद में किसका अनुसरण करना है इसके निर्देश का रोग आदि के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य अधिकार गीतार्थ को ही है। बन जाता है और जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। जहाँ तक उत्सगं और अपवाद इन दोनों में कौन धेय है उदाहरण के रूप में सामान्यतया ज्यर की स्थिति में भोजन और कोन' अश्रेय अथवा कौन सबल है, कौन निर्बल है? इस निषित माना जाता है किन्तु वात, थम, क्रोध, शोक और कामादि समस्या के समाधान का प्रश्न है। जैनाचार्यों के अनुसार दोनों से उत्पन्न स्वर में लंघन हानिकारक माना जाता है। ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात आपबादिक परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति सापेक्ष हैं है किन्तु सामान्य परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा और इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग कोई भी नहीं है । यद्यपि गया है। वृहत्कल्पभाष्य के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि अपबाद) अपने-अपने स्थानों में श्रेय व सरल होते हैं। इसे और किस व्यक्ति को उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्करूपभाष्य' की पीठिका में कहा अपवाद मार्ग पर। इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग है कि साधक को सामान्य स्थिति में उत्सर्ग का अबलम्बन करना स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं असमर्थ चाहिए किन्तु यदि वह किसी विशिष्ट परिस्थिति में फंस गया है है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे वस्तुत: जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं यह सब व्यक्ति में पड़ सकता है तो उसे अपवाद मार्ग का सेवन करना चाहिए की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कभी फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अपवाद का आल-आचरणीय अनाचरणीय एवं अनाचरणीय आचरणीय हो जाता भबन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है और उस है। कभी उत्सर्ग का पालन उचित होता है तो कभी अपबाद परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुन: उत्सर्ग गार्ग का । वस्तुतः उत्सगं और अपवाद की इस समस्या का समाधान का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पत्र होने उन परिस्थितियों में कार्य करने वाले व्यक्ति के स्वभाव का पर जो अपवाद मार्म का अनुसरण नहीं करता उसे जन आचार्यो विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित है। वैसे तो उत्सर्ग ने प्रायश्चित्त का भागी बताया किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा निश्चित कर का अबलम्बन लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी पाना कठिन है, फिर भी जैनाचार्यों ने कुछ बापवादिक परियदि कोई साधक जस अपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है स्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार तो वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है। कब उत्सर्ग का का आचरण किया जाये। आचरण किया जाये और कब अपवाद का इसका निर्णय देश सामान्यतया बहिसा को जैन साधना का प्राण कहा जा कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामध्ये पर निर्भर सकता है । साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी बजित मानी होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषणीय गई है। किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार के लिए तत्पर हो, किसी साध्वी का बलपूर्वक अपहरण करना उसके लिए अनंषणीय हो जाता है। चाहता हो वह उपदेश से भी नहीं मानता हो ऐसी स्थिति में यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि भिक्षा, आवार्य, संघ अथवा साध्वी की रक्षा के लिए पुलाकलब्धि साधक कब अपवाद मार्ग का अबलम्बन करे ? और इसका का प्रयोग करता हुआ साधक भी संयमी माना गया है। निश्चय कौन करे ? जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की सामान्यतया श्रमण साधक के लिए वनस्पतिक जीवों अथवा आवश्यकता बनुभव की और कहा कि गीतार्थ को ही यह अधि, अकायिक जीवों के स्पर्श का भी निषेध है किन्तु जीवन रक्षा कार होला है कि वह साधक को उस्सर्ग या अपवाद किसका के लिए इन नियमों के अपवाद स्वीकार किये गये हैं। जैसे २ बृहत्कल्पमाष्प पीठिका गा. ३२२ ॥ १ निशीष भाष्य ५२४५ । ३ वही गा. ३२३-३२४ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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