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________________ सदाचरण : एक यौद्धिक विमर्श |४. किया गया बल्कि इनके लिए चातुर्मासिक परिहारस्थान आदि परिग्रह की चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में रात्रि भोजन कठोर प्रायश्चित्त की व्यवस्था भी की गई है। इसी प्रकार किसी निषेध और उसमें होने वाले दोषों का विवरण है। इसी सन्दर्भ भिक्षु, भिक्षुणी अथवा स्त्री-पुरुष को आकर्षित करने अथवा उसे में रात्रि में अशनादि ग्रहण करने, उनका भोग करने या उन्हें मैथुन सेवन के लिये सहमत करने हेतु वस्त्र पात्र आदि भिक्ष. संचित करके रखने में विविध प्रायश्चित्तों के विधान की चर्चा है। जीवन के उपकरणों अथवा आभूषण, माला आदि को रखने पर चारित्राचार की इस विवेचना के अन्त में पंच समितियों और भी जैन आचार्यों ने प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। इसी प्रकार तीन गुप्तियों का वर्णन है। जहाँ समितियाँ आचार के विधिमैथुन-सेवन के उद्देश्य से कलह करके अपने साथियों को अलग पक्ष को प्रस्तुत करती है, वहाँ गुप्तियाँ निषेध पक्ष को प्रस्तुत कर देना, पत्र लिखना, पत्र लिखवाना, अथवा पत्र लिखने के करती हैं। समिति यह बताती है कि साधक को अपना जीवन उद्देश्य से बाहर जाना भी प्रायश्चित्त पोम्य अपराध माना गया थ्यवहार किस प्रकार संचालित करना चाहिये, जिसके फलस्वरूप है। इसी सन्दर्भ में वशीकरण, पौष्टिक आहार का सेवन आदि वह अपने आपको कम-बन्धन से मुक्त रख सके, जबकि गुप्तियों को भी निषिद्ध और प्रायश्चित योग्य अपराध माना गया है। का मुख्य उद्देश्य मन-वाणी की प्रवृत्तियों का नियन्त्रण या संयम पंच महावतों की चर्चा करते समय पंचम अपरिग्रह महावत करना है। सम्बन्धी विवेचन का प्रारम्भ अपरिचत महानत की प्रतिज्ञा से प्रस्तुत कृति में मुख्य रूप से एषणा समिति अर्थात् भिक्षा होता है। इसके पश्चात् अपरिग्रह महावत की पांच भावनाओं ग्रहण करने सम्बन्धी नियमों का विस्तार से विवेचन है। यह का वर्णन कर पांचों इन्द्रियों के संयम का विवरण प्रस्तुत किया सत्य है कि जैन परम्परा में आहार-शुद्धि के सन्दर्भ में विशेष गया है । वस्तुतः परिग्रह का मूल कारण इन्द्रियों की अपने सतर्कता रखी गयी है। इसमें दो ही दृष्टियां प्रमुख हैं-प्रथम विषयों की भोगाकांक्षा ही है । अतः इस भोगाकांक्षा पर विजय भिक्षु-मिक्षणियों का जीवन समाज पर भाररूप न हो। दूसरे पाने में ही अपरिग्रह की राधिना सम्भव है। साधुओं को किन यह कि वे हिंसा के दोष के भागी न बनें। इस सम्बन्ध में अधिवस्तुओं का संचय कल्प्य नहीं है इसकी पर्चा के प्रसंग में प्राचीन कांश विधि-निषेध इन्हीं दोनों सिद्धांतों के आधार पर हुए हैं। काल के कुछ मिष्ठानों का भी उल्लेख हुना है, विशेष रूप में यद्यपि इस संकलन में एपणा समिति का विवेचन अधिक विस्तार सबकुलि (तिनपापड़ी) वेडिम (वष्टिम जलेबी) का उल्लेख है। से हुआ है, किन्तु अभ्य समितियों की उपेक्षा भी नहीं हुई है। इसी प्रसंग में अपरिग्रही श्रमण की उपमा कमल पत्र से दी गई आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि स्थानांग एवं उत्तराध्ययन में पंच है. जिस प्रकार कमल पत्र जल में रहकर भी इससे निलिप्त समितियों और तीन मुप्तियों को मिलाकर आओं का समितियों रहता है, उसी प्रकार श्रमण को भी, देह रक्षण के निमित्त जो के रूप में उल्लेख हुला है अर्थात् गुप्तियों को भी समिति के आहारादि किया जाता है, उसमें निलिप्त भाव से रहना चाहिये। अन्तर्गत ही वर्गीकृत कर लिया गया है, जबकि समयायांग में इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि हिंसा वा मूल कारण इनका उल्लेस अष्ट प्रवचनमाता के रूप में हुआ है । विस्तार आसक्ति या परिग्रह ही है । जो परिग्रह में आसक्त होता है वहीं भय से हम इस सबक्री पर्वा में नहीं जाना चाहते हैं। विस्तार हिंसक होता है और वही बाल या मूर्ख कहा गया है । वस्तुतः से जानने के इच्छुक विद्वान इन्हें प्रस्तुत कृति से अथवा मेरे ग्रन्थ अनासक्ति ही साधना का मूलतत्व है और वही मुक्ति का आधार "जैन, बौद्ध और गीता के माचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्यभी है। इसी प्रसंग में प्रस्तुत चरणानुयोग नामक कृति में आसक्ति यन" भाग २ के "श्रमणाचार" नामक अध्ययन में देख सकते हैं। के निषेध पर विस्तृत चर्ना उपलब्ध होती है। यद्यपि जब तक ईर्ण समिति इन्द्रियाँ हैं, उनके विषयों का ग्रहण होगा, यह गम्भव नहीं है ईर्या समिति के वर्णन में उसके स्वरूप और भेदों का कथन कि इन्द्रियाँ अपने दिपयों की अनुभूति न करें, ऑस्त्र की उपस्थिति है। भगवती सूत्र में अणित प्रासुक बिहार का तात्पर्य बताया में रूप दिखाई देगा ही, थवणेन्द्रिय की उपस्थिति में शब्द सुनाई गया है गमनागमन से सांपरायिक क्रिया और इरियावही क्रिया देगा ही । आवश्यकता इस बात की है कि साधक उन ऐन्द्रिक का सम्बन्ध संयुत-असंवृत अणगार से किया गया है। अनुभूतियों में अपनी आसक्ति को न जोड़े और मन के अनुकूल विषम मार्ग में एवं प्राणियों आदि से अवरुद्ध मार्म में न और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार की अनुभूतियों में साक्षी भाव जाना, रात्रि में बिहार न करता, अनार्य क्षेत्रों में नहीं विचरना से रहे। आदि विषयों का वर्णन है। अकारण अनार्य क्षेत्र में विचरने का __ इस चर्चा के अन्त में यह उल्लेख है कि जो भिक्षु आसक्त प्रायश्चित्त विधान करके साथ ही चोर आदि के उपद्रव होने का होकर इन्द्रियों के विषयों के पीछे भागता है, वह प्रायश्चिन का विशद वर्णन किया गया है। पात्र होता है। गृहस्थ से उपधि नहीं उठवाना, रास्ते में चलते समय बार्ता
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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