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________________ ४८ | चरणानुयोग : प्रस्तावना लाप न करना, किसी के मार्ग पूछने पर या पशु-पक्षी आदि के एषणा के प्रमुख ४७ दोषों के स्पष्टीकरण के साथ शय्यातर विषय में पूछने पर मौन रहना, आस-पास के दर्शनीय स्थल पिड, राजपिड आदि की विस्तृत चर्चा हुई है। देखने में चित्त न लगाना आदि मार्ग सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण (२) पाणेषणा के वर्णन में अनेक प्रकार के अचित्त जलों का विश्लेषण है। मार्ग में छोटी या बड़ी नदियों को पैदल या नाव वर्णन है। आगों में अचित्त जलों की संख्या निश्चित नहीं की द्वारा बिवेक से पार करने का भी निर्देश किया गया है। गई है किन्तु कुछ नाम उदाहरण के रूप में कहकर अन्य अनेक भाषा समिति अचित्त जलों के होने की एवं ग्रहण करने की सूचना की गई है। जैनाचार्यों ने समितियों में भाषा समिति का पालन अति आगमों में पाये जलों के नामों का स्पष्टार्थ करके कल्पनीयकठिन कहा है मत: ३ पाला में विवेक की जत्योधक आव- अकल्पनीय जलों को विभाजित किया गया है, साथ ही साथ श्यकता है। आचारांग और दणकालिक सूत्र के नाधार से यह शुद्धोदक और गर्म जल की पर्वा कर उनका अन्तर भी स्पष्ट समनाया गया है कि कब वचन प्रयोग करना और कब न करना, किया है। किस प्रकार करना और किस प्रकार न करना । ठाणांग सूत्र और पर्युषणा कल्प सूत्र के आधार से तपस्या इस प्रकरण के प्रारम्भ में भाषा के प्रकारों का कथन करके में भी विविध प्रकार के (धोबन) जलों को ग्राह्य कहा है । दाता उनका स्वरूप प्रशापना मुत्र के आधार से बताया गया है। की अनुज्ञा से स्वयं के हाथों से जल ग्रहण करने की विधि भी सावध भाषा, निश्चय भाषा प्रादि भाषाओं का निषेध एवं प्रज्ञा- कही है । अन्त में तत्काल बने हुए धोवण पानी के लेने का पक आदि भाषाओं का विधान किया है। प्रायश्चित्त विधान है। अर्थात् धोवन जलों के निष्पन ने के दान सम्बन्धी भाषा के सावध निबंध की चर्चा एवं उसमें कुछ समय (घड़ी अखंमृहूर्त) बाद ही उन्हें ग्रहण करना साधु को तटस्थ रहने का विवेक कर्मबन्ध से बचने के लिए कल्पता है। अधिकरणी भाषा का विवेक, संखड़ी एवं नदी आदि को देखकर (३) आहार पानी की गवेषणा के साथ-साथ मकान की शेलने का विवेक बताकर भाषा सम्बन्धी अनेक प्रायश्चित्तों का गवेषणा का भी महत्व है। संयम, शारीर, स्वाध्याय एवं परिविधान किया है। ष्टापन आदि की सुविधामों से युक्त होने के साथ-साथ चित्त की एवणा समिति एकाग्रता के योग्य उपाश्रय होना भी आवश्यक है । धान्य. वाद्य. इस प्रकरण के अन्दर (१) पिडषणा, (२) पाणेषणा, पदार्थ, जल, अग्नि, स्त्री अ.दि से युक्त उपाश्रय का निषेध और (३) शय्येषणा, (४) वस्त्रं षणा, (५) पाषणा, (६) जोहर- माथ ही कुछ आपयादिक विधान है। गषणा एवं (७) पादपोलणषणा आदि विभाग हैं। औद्देशिक आदि दोष एवं अनेक प्रकार के परिकर्म दोष युक्त (१) पिढेषणा में मधुकरी वृत्ति, मृगचर्या, कापोतवृत्ति, मवानों की चर्चा करते हुए एषणीय अनेषणीय उपाश्रम का अदीनवृत्ति आदि से एषणाओं का महत्त्व और उपमायुक्त चोभ- वर्णन है। गिया हैं। गृहरथ के घरों में ठहरने पर होने वाले दोषों की सम्भावना आहार, विगय, एषणा, भिक्षा, गोचरचर्या आदि के भेदों व्यक्त की गई है। का निरूपण है । तदनन्तर गवेषण विधि और गवेषण की योग्यता भित्ति से असुरक्षित ऊँचे स्थानों पर, जल युक्त नदी आदि का कथन करके पारिवारिक जनों के यहाँ भिक्षार्थ जाने या न के किनारे, कम ऊँचाई वाले घास के झुपड़ों में ठहरने का जाने का स्पष्टीकरण किया गया है। निषेध हैं। भिक्षाचर्या के घरों का, उनमें प्रवेश करने का तया अन्य चातुर्मासकाल के निकट लाने पर कैसे ग्राम आदि में ठहरना, विधानों का सूचन, उद्गम, उत्पादना एवं एषणा दोषों का इस विषय वा स्पष्टीकरण है, साथ ही एकाकी बहुश्रुत भिक्ष के अलग-अलग विस्तृत वर्णन, निर्दोष आहार ग्रहण करने का विवेक ठहरने के स्थान की चर्चा भी है । तदनन्तर पाच प्रकार के अदएवं निदोष विधि से उसे खाना इत्यादि एषणा समिति के महत्व- ग्रहों का कथन एवं अनेक प्रकार के अवग्रहों का उल्लेख किया है पूर्ण अंगों का कथन है। पूर्वाचार्यों ने बताया है कि समुद्र को साथ ही संस्तारक का ग्रहण, अनुजा, प्रत्यर्पण आदि की विधियों पार करने के समान गवेषणा है और कीचड़ आदि से युक्त का उल्लेख हुआ है । संयम साधना काल में प्राप्त मनोनुकूल या किनारे को पार करने के समान परिमोगेषणा है। आहार करने प्रतिकूल शय्या में गमभाव रखने का उपदेश है। इसके पश्चात के ६ कारण और नहीं करने के ६ कारणों को ध्यान में रखते अंत में संस्तारक एवं उपाश्रय सम्बन्धी विविध प्रायश्चित्तों की हुए राग द्वेष रहित होकर उचित विधि से विवेक पूर्वक उदर- चर्चा पूर्ति के लिए आहार किया जाता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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