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________________ ६८ | परणानुयोग : प्रस्तावना समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना है और उसका परिशोधन का प्रयोजन बात्म-परिशोधन है, न कि देह-दण्डन । घृत की कर आध्यात्मिक विकास के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है। शुद्धि के लिए पत को तपाना होता है न कि पात्र को। उसी तप का सामान्य स्वरूप : एक मूल्यांकन-तप शब्द अनेक प्रकार आत्मशुद्धि के लिए आत्म-दिकारों को तपाया जाता है न अर्थों में भारतीय आचार दर्शन में प्रयुक्त हुआ है और जब तक कि शरीर को शरीर तो आत्मा का भाजन पात्र होने से तप उसकी सीमाएँ निर्धारित नहीं कर ली जातीं, उसका मूल्यांकन जाता है, तपाया नहीं जाता। जिस तप में मानसिक कष्ट हो, करना कठिन है। "तप" शब्द एक अर्थ में त्याम-भावना को वेदना हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है। पोस का होना एक बात व्यक्त करता है । त्याग चाहे वह वैयक्तिक स्वार्थ नं द्वितों का है और पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति करना दूसरी बात है। हो, चाहे वैयक्तिक सुखोपलब्धियों का हो, तप कहा जा सकता तप में पीड़ा हो सकती है लेकिन पीड़ा की व्याकुलता की अनुहै। सम्भवतः यह तप की विस्तृत परिभाषा होगी, लेकिन यह भूति नहीं। पीड़ा शरीर का धर्म है, व्याकुलता की अनुभूति तप के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती है। यहाँ तप, आत्मा का। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें इन दोनों को अलगसंयम इन्द्रिय निग्रह और देह-दण्डन बन कर रह जाता है। तप अलग देखा जा सकता है। जैन बालक जब उपवास करता है, मात्र त्यामना ही नहीं है, उपलब्ध करना भी है। तप का केवल तो उसे भूख की पीड़ा अवश्य होगी, लेकिन वह पीड़ा की व्याविसर्जनात्मक मूल्य मानना श्रम होगा । भारतीय आचार-दर्शनों कुलता की अनुभूति नहीं करता। यह उपवास तप के रूप में ने जहाँ तप के विसर्जनात्मक मूल्यों की गुण-गाथा गायी है, वहीं करता है और तप तो आत्मा का आनन्द है। वह जीवन के उसके सृजनात्मक मूल्य को भी स्वीकार किया है। वैदिक पर- सौष्ठव को नष्ट नहीं करता, वरन जीवन के आनन्द को परिष्कृत म्परा में तप को लोक-कल्याण का विधान करने वाला कहा गया करता है। है । गीता की लोक-संग्रह की और जैन परम्परा की वैयावृत्य था अब जैन-परम्परा में स्वीकृत तप के भेदों के मूल्यांकन का संघ-सेवा की अवधारणाएँ तप के विधायक अर्थात् लोक-कल्याण- किचित् प्रयास किया जा रहा है। कारी पक्ष को ही तो अभिव्यक्त करती हैं। बौद्ध परम्परा जब अनशन में कितनी शक्ति हो सकती है, उसे आज गोत्री-युग 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" का उपयोष देती है तब वह भी का हर व्यक्ति जानता है। वह तो उसके प्रत्येक प्रयोग देख तर के विधायक मूल्य का ही विधान करती है। चुके हैं। सर्वोदय समाज-रचना तो उपवास के मूल्य को स्वीकार सुजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि ही है, लेकिन यहाँ करती ही है, देश में उत्पन्न अन्न-संकट की समस्या ने भी इस स्व-बास्मन इतना व्यापक होता है कि उसमें स्व या पर का भेद ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इन सबके साथ आज ही नहीं टिक पाता है और इसीलिए एक तपस्वी का आस्म- चिकिस्सिक एवं वैज्ञानिक भी इसकी उपादेयता को सिद्ध कर कल्याण और लोक-कल्याण परस्पर विरोधी नहीं होकर एक रूप चुके हैं। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का तो मूल आधार ही होते हैं । एक तपस्वी के बारमकल्याण में लोककल्याण समाविष्ट उपवास है । रहता है और उसका लोककल्याण आत्मकल्याण ही होता है। इसी प्रकार ऊनोदरी या भूख से कम भोजन, नियमित जिस प्रकार व्यायाम के रूप में किया हुआ शारीरिक कष्ट भोजन तथा रस-परित्याग का भी स्वास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्त स्वास्थ्य रक्षा एवं शक्ति-संचय का कारण होकर जीवन के व्याव- मूल्य है। साथ ही यह संयम एवं इन्द्रियजय में भी सहायक हारिक क्षेत्र में भी लाभप्रद होता है, वैसे ही तपस्या के रूप में है। गांधीजी ने तो इसी से प्रभावित हो ग्यारह व्रतों में अस्वाद देह दुःख का अभ्यास करने वाला अपने शरीर में कष्ट-सहिष्णु व्रत का विधान किया था। शक्ति विकसित कर लेता है, जो वासनाओं के संघर्ष में ही नहीं, यद्यपि वर्तमान मुग भिक्षावृत्ति को उचित नहीं मानता है, जीवन की सामान्य स्थितियों में भी सहायक होती है । एक उप- तथापि समाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है। बास का अभ्यासी व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति में भोजन प्राप्त जन आचार-व्यवस्था में भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित हैं नहीं कर पाता, तो इतना व्याकुल नहीं होगा जितना अनभ्यस्त वे अपने आप में इतने सबल हैं कि भिक्षावृत्ति के सम्भावित व्यक्ति । कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक प्रगति के लिए दोषों का निराकरण स्वतः हो जाता है। मिक्षावृत्ति के लिए वावश्यक है। आध्यात्मिक दृष्टि के बिना शारीरिक यन्त्रणा अहं का त्याग आवश्यक है और नैतिक दृष्टि से उसका कम अपने भाप में कोई तप नहीं है, उसमें भी यदि इस शारीरिक मूल्य नहीं है। यन्त्रणा के पीछे लौकिक या पारलौकिक स्वार्थ हैं तो फिर उसे इसी प्रकार आसन-साधना और एकांतवास का योग-साधना तपस्या कहना महान मूर्खता होगी। जैन-दार्शनिक भाषा में की दृष्टि से मूल्य है। यासन योग-साधना का एक अनिवार्य तपस्या में देह-दण्डन किया नहीं जाता, हो जाता है। तपस्या अंग है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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