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________________ ३१. घरणानुयोग-२ प्रायश्चित्त का स्वरूप सत्र ६३३-६३५ सहसक्कारे, (७) सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् अनजान से अनिच्छा से दोष सेवन, पर (6) भय-प्रतिसेवना-भय से दोष सेवन, पदोसाय (E) प्रद्वेष प्रतिसेवना-रोष या द्वेष से दोष सेवन, वोमंसा (१०) विमर्श प्रतिसेवना-शिष्यों की परीक्षा के लिए -वि. स. २५, ३.७, सु. १६० दोष सेवन । पत्तारि पुरिसजाया पणता तं जहा पुरुष चार प्रकार के होते हैं१. संपागलपडिसेको गामेगे, गो पच्छणपडिसेवी, यथा -(१) कुछ पुरुष प्रकट में दोष सेवन करते हैं, किन्तु छिपकर नहीं करते, २. पच्छण्णपडिसेवी णामेगे, णो संपागस्पडिसेवी, (२) कुछ पुरुष छिपकर दोष सेवन करते हैं, किन्तु प्रकट में नहीं करते, ३. एमे संपागलपडिसेवी वि, पच्छण्णपहिसेवी वि, (३) कुछ पुरुष प्रकट में भी दोष सेवन करते हैं और छिप कर भी, ४. एगे णो संपागडपजिसेवी, णो पच्छपणपडिसेवी। (४) कुछ पुरुष न प्रकट में दोष सेवन करते हैं और न --ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २७२ छिपकर ही । धत्तारि पुरिसमाया पम्पत्तर, तं जहा -- पुरुष चार प्रकार के होते हैं, यथा१. संपागडपडिसेबी गाममेगे, (१) प्रकट में दोष सेवन करने वाला, २. पच्छपणपडिसेवी णाममेगे, (२) छिपकर दोष सेवन करने वाला, ३. पप्पण्णणंयोगाममेगे, (९) इष्ट वस्तु की उपलब्धि होने पर आनन्द मनाने वाला, ४. गिस्सरणणंदी गाममेगे। (४) दूसरों के चले जाने पर थानन्द मनाने वाला। -ठाणे. अ. ४, उ. २, सु. २९२ (१) पायच्छित सरूवं प्रायश्चित्त का स्वरूप६३४. बालोयगारिहाईयं, पायपिछतं तु बसविहं। १६३४. आलोचना के योग्य आदि जो दस प्रकार का प्रायश्चित्त ने भिक्खू वहई सम्म, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ है, जिनका भिक्षु सम्यम् प्रकार से पालन करता है, वहीं प्राय -उत्त. अ. ३०, गा. ३१ पिचत्त कहा जाता है। पायच्छित्तप्पगारा प्रायश्चित्त के प्रकार६३५. १०-से कि तं पायपिछत्ते ? ६३५. प्र.-प्रायश्चित्त क्या है, वह कितने प्रकार का है? उ०-बस बिहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा उ०-प्रायश्चित्त दस प्रकार कहा गया है. यथा१. आलोपगारिहे, २. पडिक्कमणारिहे, (१) आलोचना के योग्य, (२) प्रतिक्रमण के योग्य, ३. तनुभयारिहे, ४.विवेगारिहे, (३) तदुपय दोनों के योग्य, (४) विवेक के योग्य, ५. विउसम्मारिहे, ६. तवारिहे, (५) व्युत्सर्च के योग्य, (६) तप के योग्य, ७. छेदारिहे, ८. भूलारिहे। (७) छेद के योग्य, (८) मूल के योग्य, ६. अणवटुप्पारिहे' १०. पारंचियारिहे। (E) अनवस्थाप्य के योग्य, (१०) पाराचिक के योग्य । -वि. स. २५, उ.७, सू. १९५ १ ठाणं. अ. १०, सु. ७३२ २ ठाणं. अ.३, उ.४, सु. १९८ ४ ठाणं 3.5, सु. ५०५ ६ (क) वि. स. २५, उ. ७. सु. २१८ ३ ठाणं. भ. ६, सु. ४८६ ५ ठाणे. अ. ६, सु. १८८ (ल) ठाणं. अ. १०, सु. ७३३ (ग) उव. सु. ३०
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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