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४ | चरणानुयोग : प्रस्तावना परिभाषित किया गया है।
हारिक पक्ष है। आचारांम में उपलब्ध धर्म की यह परिभाग (१) आचारांग में क्षमा आदि सद्गुणों को धर्म कहा गया हमें मीमांसा दर्शन में उपलब्ध धर्म की उस परिभाषा की स्मृति
दिला देती है जहाँ धर्म को चोदना (प्रेरणा) लक्षण कहकर परि(२) स्थानांग में क्षमा, अलोभ, सरलता, मृदुलता, लघुत्व, भाषित किया गया है और जिसके अनुसार बेद-विहित विधानों सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास आदि जो धर्म के दस के पालन को धर्म कहा गया है । रूप प्रतिपादित किये गये हैं।'
धर्म : सामाजिक दायित्व का निर्वहन (३) कार्तिकेयानुप्रेशा में भी क्षमादि दस सद्गुणों को दसविध स्थानांग सूत्र में धर्म की व्याख्या के एक अन्य सन्दर्भ में धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है।
राष्ट्र-धर्म, ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, कुल-धर्म, गणधर्म आदि का भी वस्तुतः यह धर्म की सदगुणपरक या नैतिक परिभाषा है। वे उल्लेख हुआ है। सभी सद्गुण जो सामाजिक समता को बनाए रखते हैं सामाजिक यहाँ धर्म का तात्पर्य राष्ट्र, ग्राम, नगर, कुल, गण आदि के समरख के संस्थापन की दृष्टि से धर्म कहे गये हैं। क्षमा दि इन प्रति हमारे जो कर्तव्य या दायित्व हैं, उनके परिपालन से है । सदगुणों की विशेषता यह कि ये वैयक्तिक और सामाजिक दोनों इन धर्मों के प्रतिपादन का उद्देश्य व्यक्ति को अच्छा नागरिक ही जीवन में समत्व या शान्ति-संस्थापन करते हैं।
बनाना है, ताकि सामाजिक और पारिवारिक जीवन के संघर्षों वस्तुतः धर्म की इस व्याख्या को संक्षेप में हम यह कहकर और तनावों को कम किया जा सके तथा वयक्तिक जीवन के प्रकट कर सकते हैं कि सद्गुण का बाचरण या सदाचरण ही धर्म साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी शान्ति और समता की स्थाहै और दुगुण का आचरण या दुराचरण ही अधर्म है। इस पना की जा सके। प्रकार जैन आचार्यों ने धर्म और नीति अथवा धर्म और सद्गुण धर्म को विविध परिभाषामों में पारस्परिक सामंजस्य में तादात्म्म स्थापित किया है, उनके अनुसार धर्म और अनैतिक जैन परम्परा में उपलब्ध धर्म की इन विविध परिभाषाओं जीवन-सहगामी नहीं हो सकते। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आचार्यों ने धर्म को कभी भी छनुसार भी वह धर्म जो अनैतिकता का सहगामी है, वस्तुतः रूढिमा विशिष्ट प्रकार के कर्म-काण्डों के परिपालन के रूप में धर्म नहीं, अधर्म ही है।
नहीं देखा है। उनकी दृष्टि में धार्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य धर्म : जिनामा का पालन
व्यक्ति के चैत्तसिक जीवन में उपस्थित पाशविक बासनाओं एवं ____ आचारांग में धर्म की एक अन्य परिभाषा हमें इस रूप में उन कपायजन्य आवेगरें का परिशोधन कर उसकी आध्यात्मिक मिलती है कि आज्ञा पालन में धर्म है। तीर्थकर या वीतराग चेतना को समत्व, शान्ति या समाधि की दिशा में अग्रसर करना पुरुषों के आदेशों का पालन ही धर्म है। आचारांग में महावीर है। यद्यपि जैन धर्म मे साधना और उपासना की विशिष्ट पद्धस्पष्ट रूप से कहते हैं कि मानवों के लिये मेरा निर्देश है कि मेरी तियाँ अनुशंसित हैं फिर भी उन सबका तात्पर्य व्यक्ति की प्रसुप्त आज्ञा का पालन करना ही धर्म है। यहाँ आज्ञा पालन का चेतना को जागृत कर उसे अपनी आध्यात्मिक दुर्बलताओं का बोध तात्पर्य सद्गुणों को जीवन में अपनाना है। यही धर्म का व्याव- कराना है तथा यह दिखाना है कि उसकी आवेगजन्य तनावपूर्ण १ आचारांग, १/६१५ २ बसबिहे समण धम्मे पणसे, तं जहा
खति, मुत्ति, अज्जवे, महवे, लाघवे. सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे। -स्थानांग १०७१२ (च. पृ. ११) ___ झाप्तष्य है कि आचासंग १/६/५, समवायांग १०/१, बारस्स अणुबेक्खा, तत्वार्थ ६६ आदि में भी इनका उल्लेख है यद्यपि नाबारंग और स्थानांग की सूची में कुछ नाम भेव है । वैदिक परम्परा में मनुस्मृति १०६३, ६/६२; महाभारत आरिपर्व, ६५/ ५ में भी कुछ नामभेव के साथ इनके उल्लेख हैं। श्रीमदभागवत (४/४६) में धर्म को पत्नियों एवं पुत्रों के रूप में इन सदगुणों का उल्लेख है।
बारस्सअगुवेक्खा (कार्तिकेय) ४७८ । : आणाए मामगं धम्म-एस उत्तरवाये इह माणवाणं वियाहिए।
-आचारांग १/६/२/१८५ (च. पृ. ६०) . भीमांसा सूत्र, १/१/२
बसविहे धम्मे पण्णते, तं जहा-- गामधम्मे, नयरधम्मे, रदुधम्मे, पासंबधम्मे, कुलधम्मे, गगधम्मे, सुयधम्मे, चरितधम्मे, अस्थिकायधम्मे ।
-स्थानांग, १०/७६० (च. पृ. ३१)