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चरणानुयोग-२
तेतीस प्रकार के स्थानों का प्रतिक्रमण सूत्र
सूत्र २३१
(२) पडिक्कमामि छहिं खेसाहि
तीन अधर्म लेश्याओं के करने से और तीन धर्म लेश्यामों के न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिकमण करता
(१) किन्हलेसाए, (२) नीललेसाए, (३) काउलेसाए, (४) तेउलेसाए, (५) पम्हलेसाए, (६) सुक्कलेसाए।। परिकमामि सत्तहि भयाणेहि अहिं मपट्ठाणे हि' नहिं बंगचेरगुतीहि, वसबिहे समणधम्मेएपफारसहिं उवासग-परिमाहि
पणासा
बारसहि मिर-पडिमाहिर
(१) कृष्णलेण्या, (२) नीललेश्या. (३) कपोतलेण्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या, (६) शुक्ललेश्या। प्रतिक्रमण करता हूँ-सात भय के कारणों से आठ मद स्थानों के सेवन से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों का सम्यक् पालन न करने से, दश विध क्षमा आदि श्रमण-धर्म की विराधना से,
ग्यारह श्रावक की प्रतिमाओं की अश्रद्धा तथा विपरीत प्ररूपणा से,
बारह भिक्षु प्रतिमाओं की श्रद्धा, प्ररूपणा तथा पालन अच्छी तरह से न करने से,
तेरह क्रिया-स्थानों के करने से, चौदह प्रकार के जीवों की हिंसा से, पन्द्रह परमाधार्मिकों के प्रति अशुभ परिणाम करने से,
सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के गाथा अध्ययन सहित सोलह अध्ययनों में प्ररूपित धर्मानुसार आचरण न करने से।
सत्तरह प्रकार के असंयमों के आचरण से, अट्ठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य से,
शाता सूत्र के उन्नीस अध्ययनों में प्रतिपादित भावानुसार संयम में न रहने से,
वीस असमाधि स्थानों के सेवन से,
तेरसहि किरियाठागेहि चउसेहि भूयगामेहि पन्नरसहि परमाहम्मिएहि,10 सोलसहि गाहासोलसएहि.11
सत्तरसविहे असंजमे, अट्टारसबिहे अबंभे,13 एगणवीसाए नायग्मयहि,१७
बीसाए बसमाहिद्वाहि.15
(ग) चतुर्थ महायत
१ (क) ठाणं. अ. ६, सु, ५०४ २ (क) ठाणं. अ.७,सु. ५४६ ३ (क) ठाणं. अ. ८, सु. ६०६ ४ (क) ठाणं. अ. ६, सु ६६३ ५ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७१२ ६ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७५५
(ग) दसा. द. ६, सु. १-३० ७ (क) ठाणं अ., १०, सु. ७५५
(ग) दसा. द. ७, सु. १-३६ ८ (क) अनाचार है सम. सम. १४, सू.१ ११ सम, सम. १६, सु. १ १२ (क) सम. सम. १७, सु. १ १३ (क) सम. सम. १८, सु. १ १४ सम. सम. १६, सु. १ १५ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७५५
(ख) सम. सम.६; सु. १ (ग्व) सम. सम.७, सु. १ (ख) सम. सम. ८, सु.१ (ख) सम. सम. ६, सु. १ (ख) सम. सम. १०, सु. १ (ख) सम. सम. १०, सु. १ (घ) गृहस्थ धर्म (ख) सम. सम. १२. सु.१ (घ) संयमी जीवन (ख) सम. सम. १३, सु. १ १० सम. सम.१५, सु.१
(ख) संयमी जीवन (ख) चतुर्थ महानत
(ख) सम. सम. २०, सु. १
(ग) अनाचार,