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________________ २४ | घरगानुयोग : प्रस्तावना जाता है, ममत्वबुद्धि स्थापित हो जाती है, हम किसी को अपना डाक्टर के मन में निरपेक्षता का भाव होता है । वे जो कुछ भी मानने लगते हैं वहीं पर उसकी मृत्यु या विवोग हमें सताता है। करते हैं कर्तव्यबुद्धि से करते हैं । एक ही काम एक व्यक्ति कर्तव्यअतः दुःख की निवृत्ति का कोई उपाय हो सकता है तो वह यही बुद्धि से करता है, एक ममत्वबुद्धि से। जो ममत्व बुद्धि से करता कि संसार की वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति हमारा रागभाव है, वह विचलित होता है, दुःखी होता है किन्तु जो कर्तव्यबुद्धि समाप्त हो और यह राग-भाद समाप्त हो सकता है, जबकि हम से करता है वह निरपेक्ष बना रहता है, तटस्थ बना रहता है। सम्यग्ज्ञान द्वारा आत्म-अनात्म के विवेक को प्राप्त कर सकते वस्तुतः सम्यग्ज्ञान का मतलब है कि हम संसार में जो कुछ भी हैं । सम्यग्ज्ञान क्या है इसे स्पष्ट करते हुए जैनागमों में कहा करें, जैसा भी जीयें, वह सब कर्तव्यबुद्धि से करें और जीयें, गया है ममत्वबुद्धि से नहीं, जो सांसारिक उपलब्धियां हैं और ओ सांसाएगो मे सासओ अप्पा पागदसण संजुओ। रिक पीड़ायें और दुःख हैं. उनके प्रति हमारा निरपेक्षभाव रहे, सेसा मे बहिरा मावा सम्वे संजोगलक्षणा ॥ हम उन्हें मात्र परिस्थिति जन्य समझें । सुख-दुःख, संयोग-वियोग अर्थात में जातादृष्टारूप अकेला आत्मा है। शेष सभी मान-अपमान, प्रशंसा और निन्दा -ये सब सांसारिक जीवन के मुमसे भिन्न हैं और सांयोगिक हैं। अनिवार्य तत्व है। कोई भी इनसे बच नहीं पाता, ज्ञानी और हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारी जो भी सांसारिक अज्ञानी दोनों के ही जीवन में सब तरह की परिस्थितियां आती उपलब्धियां हैं, चाहे वह धनसम्पदा के रूप में हों या पत्नी. पूत्र. हैं. अन्तर यही है कि जानी उन्हें जीवन की यथार्थता मानकर पुषी आदि परिवार के रूप में हो वह सभी केवल संयोगजन्य राम 1 से अर्थात् अपने चित्त की समता को नहीं खोते हुए उपलब्धियाँ हैं । व्यक्ति के लिए पत्नी सबसे निकट होती हैं. उनका देदन करता है, जबकि अज्ञानी उनमें विचलित हो जाता अन्यतमा होती है, किन्तु हम जानते हैं कि वह केवल एक मांयो- है, उनके कारण दुःखी होता है। कहा भी हैगिक उपलब्धि है। दो प्राणी कहीं किसी परिस्थिति के कारण सुख दुःख आपव सम्पदा, सब कार को होय । या संयोग के वश एक दूसरे के निकट आ जाते हैं, और एक शानो भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय ॥ दूसरे को अपना मान लेते हैं, वहीं पाएन भरता ही संस. वस्तुतः सम्यग्जान का अर्थ है जीवन की अनुकूल एवं है जो उसे बन्धन, दु:ख तथा दुश्चिन्ताओं से जकड़ लेता है, वह प्रतिकूल स्थितियों में अविचलित भाव से या समभाव से जीना । उसके लिए अच्छा-बुरा क्या-क्या नहीं करता। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान जब ज्ञान के द्वारा जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप का बोध का अर्थ है जीवन और जगत के यथार्थ स्वरूप को पहचानना। हो जाता है तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में मन का वस्तुतः हम सम्यग्ज्ञान के अभाव में अनित्य को नित्य मान बैठते समभाव साधता है । ज्ञान के द्वारा मन में निराकुलता जगे, मन हैं, पराये को अपना मान बैठते हैं और इसी कारण फिर दुःखी तनावों से मुक्त हो यही साधना के क्षेत्र में ज्ञान की उपहोते हैं। हमारे यहाँ सम्यग्दृष्टि मा ज्ञानी की एक स्पष्ट पहनान योगिता है। बतायी गई है। कहा गया है कि सम्यक्चारित्र का स्वरूप सम्पवृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाय या समत्व अन्तरसू न्यारा रहे, ज्यों प्राय खिलावे याल ।। की उपलब्धि है । मानसिक या चत्तसिक जीवन में, समत्व की हम सब यह अच्छी तरह जानते हैं कि एक कर्तव्यनिष्ठ नर्स उपलब्धि चारित्र का पारमार्थिक या नैश्वयिक पक्ष है। वस्तुतः किसी बच्चे का लालन-पालन उसकी मां की अपेक्षा भी बहुत चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। श्चयिक अच्छी प्रकार से करती है, एक कर्तव्यनिष्ठ डाक्टर विसी व्यक्ति चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। के जीवन को बचाने के लिए उसके पारिवारिक जनों की अपेक्षा अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने अच्छी प्रकार से उस रोगी की परिचर्या करता है किन्तु नर्स गये हैं । चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की और डाक्टर दोनों ही क्रमशः बालक और रोगी की पीड़ा और अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक मृत्यु से उत्तने विचलित नहीं होते, जितने कि उनके पारिवारिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का जन होते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसका कारण स्पष्ट है, कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नश्वविक चारित्र का पारिवारिकजनों के प्रति हमारे मन में एक ममस्वभाव होता है, आधार है, राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और एक अपनापन होता है, रागात्मकता होती है जबकि नर्स और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जव जीवन की प्रत्येक क्रिया १ बन्यावेज्मय पहष्ण १६० ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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