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बरमामुयोग--२
मेघावो मुनि का पराक्रम
मूत्र ८०२-०३
पुरिसा ! असाणमेव अभिणिगिज्म, एवं दुक्खा पमोक्खसि। हे पुरुष ! तू अपनी आत्मा का ही निग्रह कर ऐसा करने से
--आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२६ तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। इमेव चंब जुमाहि, कि ते जुग्ण बजातो?
इम कर्म-पारीर के साथ ही युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध
करने में तुझे क्या मिलेगा? शुबारिह बसु बुल्लभ । जहेस्य कुसलेहि परिणाविवेने भाव युद्ध के योग्य मनुष्य शरीर प्राप्त होना अवश्य ही मासित। -आ. सु. १, अ. ५, र. ३, सु. १५६ दुर्लभ है । इस जिन शासन में तीर्थंकरों में जिस प्रकार से परिज्ञा
और विवेक बताये हैं। सम्वत्य संमतं परावं ! तमेव उपातिकम्म एस महं विवेगे पाप सर्वत्र सम्मत है मैं उसी पाप का निकट से अतिक्रमण वियाहिते। -आ. सु. १, अ. ८, उ. १, सु. २०२ (क-ख) करके स्थित हूँ यह मेरा विवेक कहा गया है। से एगे संविङपहे मुगी अग्रणहा तोगमुवेहमाणे।
वास्तव में वही मुनि मोक्षपथ पर प्रगतिशील होता है जो वीतराग मार्ग से विपरीत आचरण करने वाले लोगों की उपेक्षा
करता रहता है। पति कम्म परिष्णाय सध्यसो ! से ण हिंसति, संगाल, मो . इस प्रकार और कारणों को सम्यक् प्रकार से जान पगठमति, उन्हमाणे पत्तेयं सातं, वण्णाएसौ गारमे कंचणं कर भिक्षु किसी प्रकार की हिंसा नहीं करता और संयम का सावलोए।
आचरण करता है पाप कार्य में घृष्टता नहीं करता, प्रत्येक प्राणी के सुख का विचार करते हुए संयम का इच्छुक मुनि
समस्त लोक में कुछ भी आरम्भ न करे । एगप्पमुहे विदिसम्पत्तिणे णिग्विण्णचारी अरते पयामु। वह एक मात्र मोक्ष को चाहने वाला संसार मार्ग से प्रतीर्ण
और विरक्त होकर विचरने वाला मुनि स्त्रियों के प्रति अनासक्त
से पसुमं सम्वसमण्णागत पणाणेण अपाणेण अकरणिज्जं विशिष्ट प्रज्ञावान संयमधारी मुनि के लिए अन्तःकरण से पावं कम्म तं जो अण्णेमी।
पाप कर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे । - आ. सु. १, अ. ५, उ. ३, सु-१५९-१६० अप्पा चेव दमेयरवो, अप्पा हु खलु बुद्दमो ।
आत्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि आत्मा का दमन अप्पा बम्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्य य ।। करना बड़ा कठिन है आत्म दमन करने वाला ही इहलोक और
परलोक में सुखी होता है। वरं मे अप्पा बन्ती, संजमेण तवेण य।
अच्छा पहो है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा माहं परेहि दम्मतो बन्धहि बहेहि य ॥ का दमन करूं दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन
-उत्त. अ. १, सु. १५-१६ करें-यह अच्छा नहीं है । मेहावी मुणिस्स परक्कम
मेधावी मुनि का पराक्रम८०३. सदी आणाए मेधावी ।
८०३. वीतराग की आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। लोग च आणाए अभिसमेच्या अकुतोभयं ।
वह जिनवाणी के अनुसार षट्जीवनिकाय रूप लोक को
जानकर पूर्ण अभयदाता हो जाता है। अत्यि सस्थं परेण परं, गरिय असत्यं परेण परं।
शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु अश्वस्त्र (संयम) एक से एक बढ़कर नहीं होता
अर्थात् वह एक रूप होता है। में कोहयसी से माणदंसी,
जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदी होता है, जे माणसो से मायासी।
जो मानदर्शी होता है, वह मायादी होता है, से मायादसी से सोमबंसी।
जो मामादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है।