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________________ सूत्र ७०० धर्म-फया विवेक तपाचार [३४६ अवि य हणे अणाीयमाणे । एत्यं पिजाण सेयं ति णस्थि । कदाचित तत्व को सम्बक ग्रहण न करते हुए श्रोता भिक्षा को मारने भी लग सकता है। अतः मिन को यह लाने बिना धर्मकथा करना श्रेयस्कर नहीं होता है किकेऽसिए: 'श्रोता कौन है और किस सिद्धान्त को मानने वाला है?' -आ. सु. १, अ.२, उ. ६, सु. १०२ वर्य लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडोणं वाहिण उदीणं आइपखें आगमज्ञ मुनि प्राणी जगत पर दया अनुकम्पा भावपूर्वक विमए किट्टए वेदवी। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण आदि दिशाओं में विचरता हुआ धर्म का आख्यान करे, उसका निभेद करके समझाये तथा धर्माचरण से सुफल का प्रतिपादन करे। से उढिएसु वा अणुट्टिएषु वा सुस्तकमाणेसु पवेवए-संति वह मुनि धर्माचरण युक्त या धर्माचरण रहित जो भी पुरुष विति, उषसम, णिवषाणं, सोयषियं, अज्जविय', मद्दषिय, धर्म श्रवण के लिए उपस्थित हो उन्हें शान्ति, विरति, उपशम, लाविय, अणतिवत्तिय'। निर्वाण, पवित्रता, सरलता, कोमलता, अपरिग्रह एवं अहिंसा आदि धर्मों का प्रतिपादन करे। ससि पाणाणं सम्यसि भूताणं, सरुवेसि जीवाणं, ससि वह भिक्ष समस्त प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सत्ताणं अणुबौद्ध भिक्खू धम्ममाइपखेज्जा। समस्त सत्वों का हित चिन्तन करके धर्म का व्याख्यान करे। अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसाएमा, भिक्षु वेिक पूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने णो परं आसाएज्जा, पो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई आपको बाधा न पहुंचाए. न. दूसरों को वाधा पहुँचाए और न ही सत्ताई आसाएज्जा। अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को बाधा पहुंचाए। से अणासायए अणासायमाणे बज्जमाणाणं भूताणं जीवाणं किसी भी प्राणी को बाधा न पहुंचाते हुए धर्म कहने वाला सत्तार्ण जहा से दीवे असंगणे एवं से मवति सरणं महामुणी। वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणों, भूतों, जीवों -आ सु. १, अ. ६, उ. ५, सु. १६६-१६७ और सत्वों के लिए असंदीन (नहीं डूबने वाले) द्वीप की तरह पारणभूत होता है। आयाति पाणी दह माणवाणं संसारपडिवण्णाण संबुज्न- ज्ञानी पुरुष इस संसार में स्थित, सम्यक् बोध पाने के लिए माणाधं विशाणं पत्तागं । उत्सुक एवं विज्ञान प्राप्त मनुष्यों को उपदेश करते हैं। अट्टर वि संता अदुवा पमत्ता । जो आर्त अथवा प्रमत्त होते हैं, ये भी धर्म का आचरण कर सकते हैं। महासश्चमिण ति बेमि। यह यथातथ्य सत्य है, ऐसा मैं कहता है। गाऽणागमो मन्चमुहस्स अत्पि, इच्छापणीता काणिकेया, 'जीव मृत्यु के मुख में नहीं जायेंगे, ऐसा सम्भव नहीं है । कालगहोता गिच ये णिविट्ठा पुढो पुढो जाई पकापति । फिर भी कुछ लोग इच्छाओं के द्वारा प्रेरित होकर असंयम में संलग्न रहते हैं । वे मृत्यु को पकड़ में आ जाने पर भी कमसंचय करने या धन संग्रह में लगे रहते हैं। ऐसे लोग विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं। बहमेगेति तस्य तत्म संययो भवति । महोववातिए फासे ऐसे मनुष्यों का इस लोक में उन-उन जन्म-मरण के स्थानों परिसंवैवयंति। का अति सम्पर्क होता है। वे वहाँ जन्म-मरण के अनेक दुःखों -आ. सु. १, अ. ४, उ. २, सु. १३४.१३५' का अनुभव करते हैं। केसिधि तक्काइ अबुज्म मावं, सत्व चर्चा करने पर कोई अश्रद्धालु मनुष्य भावों को न शुष्कं पि गछछज्जा असहहाणे । समझकर क्रोध को प्राप्त हो सकता है और वक्ता को मार आपुस्त कालातियारं वषातं, सकता है या कष्ट दे सकता है इसलिए मुनि अनुमान के द्वारा लखाणमाणे य परेसु अद्वै॥ दूसरों के भावों को जानकर धर्म कहें। १ इस सूत्र का पोष अंश चारित्राचार पृ. २०७ पर देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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