SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ८२०-८२३ कर्म निर्जरा का कल वीर्याचार [४११ amreme तओ से जायन्ति पओयणाई, विकारों की प्राप्ति के पश्चात् उसके समक्ष उसे मोह रूपी निमज्जि मोहमहण्णवम्मि । सागर में डुबोने वाले विषय-सेवन के प्रयोजन उपस्थित होते हैं । सुहेसिणो वृक्वविमोयणट्ठा, फिर यह सुख की प्राप्ति और दल के विनाश के लिए अनुरक्त तप्पच्चयं उज्जमए य रागी । बनकर उन विषयों संयोगों की पूर्ति के लिए उद्यम करता है। विरज्जमागस्स य इन्दियस्था, जितने माद आदि इन्द्रिय-विषय है, वे सब मनोज्ञ हों या सद्दाइया तावइयपगारा। अमनोश हों, विरक्त मनुष्य के मन में कुछ भी विकार उत्पन्न न तस्स सम्वे धि मणुनयं था, नहीं करते । निम्वत्सयंती अमणुनयं पा ॥ -उत्त. भ. ३२, मा. १००-१०६ कम्मणिज्जरा फलं . कर्म निर्जरा का फल८२१. प.--बोदाणेणं मंते ! जीवे कि जणया? ८२१. प्र.-भन्ते ! व्यवदान (पूर्व संचित कम विनाश) से जीव को क्या लाभ होता है ? उ.-बोदाणेणं अकिरियं जणपा। अकिरियाए भक्त्तिा उ.---पूर्वकृत कर्म के क्षय से जीव अक्रिय हो जाता है, तो पन्छा सिज्यह, मह, मुन्ना, परिनिग्वाएइ, अक्रिय होने के पश्चात् जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है, सभ्यबुक्लाणमंत करे। परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त -एस. अ. २६, मु.३० करता है। बीयरागया-फलं वीतरागता का फल८२२. प०-बीयरागयाए गं अंते ! जी कि जणय ? ८२२. भन्ते ! वीतरागता से जीव क्या प्राप्त करता है। उ०-बोयरागयाए णं नेहाणुबंधणागि, तहाणुबंधणागि य बीतरागता से वह स्नेह के अनुबन्धनों और तृष्णा के अनु वोच्छिन्दा, मण्णा मणुग्नेसु सफरिसरसरूवगंधेसु बन्धनों का विच्छेद करता है तथा मनोज ओर अमनोज शन्द, चैव विरगनाइ । -उत्त. भ. २६, सु. ४७ स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से विरक्त हो जाता है। उपसंहारो उपसंहार५२३. एवं उदाह निर्माथे, महावीरे महामुणी । ८२३. अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी निन्य महामुनि महावीर ने अर्णतणाणसी से, धम्म सितवं सुतं ॥ श्रुतधर्म का उपदेश दिया । -सूर्य. सु. १, अ. ६, उ. ४, गा. २४ ॥ धरणानुयोग समाप्त ॥ सत्र सूत्र संख्या १८२३ पर समाप्त
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy